class 11th hindi chapter 1 namak ka daroga question answer//kaksha 11 Hindi solution
hindi class 11th hindi chapter 1 solution
अध्याय - 1
नमक का दरोगा - प्रेमचंद
1.जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वर-प्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ-बारह थे । इसके दरोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचाता था। यह वह समय था, जब अंग्रेजी शिक्षा और इसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे। फारसी का प्राबल्य था। प्रेम की कथाएं और श्रृंगार रस के काव्य पढ़कर फारसीदाँ लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे।
संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के पाठ 'नमक का दरोगा' से लिया गया है। इसके रचयिता मुंशी प्रेमचंद जी हैं।
प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश के माध्यम से यह बताया गया है कि जब नमक कानून लागू हुआ तो कालाबाजारी और रिश्वतखोरी बढ़ गई। लोग नमक विभाग की नौकरी के लिए लालायित रहते थे सरकारी नौकरी के लिए पात्रता के मापदंड भी किस प्रकार के थे।
व्याख्या - जब नमक के कानून का पालन कराने के लिए अलग से एक सरकारी विभाग बना तो नमक का व्यापार चोरी छिपे होने लगा। नमक भगवान की देन है। ऐसे वस्तु का उपयोग करने पर सरकारी बंधन लगाने का परिणाम बहुत बुरा हुआ। सरकारी विभाग में कई प्रकार के छल प्रपंच शुरू हो गए। कोई रिश्वत लेकर अपना काम निकालने लगा। कोई अन्य किसी प्रकार की चालाकी करके कानून को धोखा देने लगा। रिश्वत की मोटी कमाई होने लगी। उन दिनों पटवारी के पद को सब लोग बड़े सम्मान से देखते थे। परंतु जैसे ही नमक का विभाग बना पटवारी भी अपने पद छोड़कर इस विभाग में आने के लिए लाल चाहने लगे। नमक के दरोगा बनने में तो इतना आकर्षण था कि वकील भी वकालत छोड़ कर इस पद पर नियुक्त होना चाहते थे। अंग्रेजों के राज में यह समय ऐसा था जब कि लोग अंग्रेजी शिक्षा को ईसाई धर्म का पर्यायवाची मानते थे। उस समय फारसी भाषा का बोलबाला था। फारसी के जानकार लोग प्रेम की कथाएं और प्रेम की कविताएं सुनाकर सर्वोच्च पदों पर पहुंच जाते थे उन्हें नौकरी पर रख लिया जाता था।
2. नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूंढना जहां कुछ ऊपरी आए हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्त्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है इसी से उसकी बरकत होती है, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊं। इस समय में विवेक की बड़ी आवश्यकता है। मनुष्य को देखो, उसकी सहायता को देखो और अवसर को देखो, उसके उपरांत जो उचित समझो, करो। गरजवाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है। लेकिन बेगरज को दांव पर पाना जरा कठिन है। इन बातों को निगाह में बांध लो। यह मेरी जन्म भर की कमाई है।
संदर्भ - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के पाठ 'नमक का दरोगा' से लिया गया है। इसके रचयिता मुंशी प्रेमचंद जी हैं।
प्रसंग - बाबू वंशीधर बेरोजगार थे। जब वे रोजगार के लिए घर से निकले तो उनके अनुभवी पिता ने समाज के रीति-नीति को देखते हुए अपने बेटे को रिश्वत पाने वाली नौकरी प्राप्त करने की सीख देते हुए कहा -
व्याख्या - बेटे वंशीधर ! तुम नौकरी प्राप्त करने चले हो। मेरी एक चीज सुनते जाओ। नौकरी में ऊंचे या नीचे पद की ओर ख्याल मत करना। पद छोटा भी हो तो स्वीकार कर लेना, क्योंकि नौकरी तो पीर की मजार की तरह है जिस पर भेंट, चढ़ावे, चादर आदि रोज चढ़ते ही रहते हैं अर्थात रिश्वत का माल मिलता ही रहता है। अतः तुम रिश्वत की ओर नजर रखना बाकी किसी झंझट में ना पड़ना। तुम ऐसी ही कोई नौकरी ढूंढना जिसमें खूब रिश्वत मिलने की आशा हो, भ्रष्टाचार के पूरे पूरे आसार हों। मासिक वेतन से कभी घर का गुजारा नहीं चलता। वह पूर्णिमा के चांद की तरह महीने में एक बार मिलता है और फिर घटते-घटते समाप्त ही हो जाता है। परंतु ऊपर से मिलने वाला धन बहते हुए झरने के समान है जो कभी नहीं सूखता। उससे ज्यादा हमारी प्यास बुझती रहती है। रिश्वत सदा मिलती रहती है। वेतन को देने वाला मनुष्य है, इसीलिए उसमें वृद्धि नहीं होती परंतु ऊपरी आमदनी ईश्वर की देन मानी जाती है। इसलिए उसमें रोजाना वृद्धि होती जाती है। आता तो मेरे साथ वाली नौकरी ही। लेना बाकी तुम खुद समझदार हो। तुम्हें अजय के समझाने की आवश्यकता नहीं है। इस सिलसिले में बड़ी समझदारी चाहिए। तुम काम के लिए आए आदमी को देखना, उसकी जरूरत को देखना और मौके को भी पहचानना। यदि मौका अच्छा हो, आदमी बहुत जरूरतमंद हो और अमीर हो तो खूब रिश्वत ऐंठना। जिसे काम कराने की गरज हो। उसके साथ कठोरता का बर्ताव करना। तुम्हें लाभ-ही-लाभ मिलेगा। लेकिन ए जिसे कोई इच्छा ना हो, उस पर दाँव ना चलाना। वह रूस रिश्वतखोरी में नहीं फँसता। मेरी यह सीख अच्छी तरह मन में धारण कर लो। मेरे जीवन-भर की कमाई का बस यही अनुभव है। इसे अपना लो।
3. पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मी जी पर अखंड विश्वास था। वह कहा करते थे कि संसार का तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का ही राज्य है। उनका यह कहना यथार्थ ही था। न्याय और नीती सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती है, नचाती हैं। लेटे-लेटे ही गर्व से बोले चलो, हम आते हैं। यह कहकर पंडित जी ने बड़ी निश्चिंता से पान के बीड़े लगाकर खाए। फिर लिहाफ ओढे हुए दरोगा के पास आकर बोले-बाबूजी, आशीर्वाद! कहिए, हमसे ऐसा कौन सा अपराध हुआ की गाड़ियां रोक दी गई। हम ब्राह्मणों पर तो आपकी कृपा-दृष्टि रहनी चाहिए।
वंशीधर रुखाई से बोले- सरकारी हुक्म!
संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के पाठ 'नमक का दरोगा' से लिया गया है। इसके रचयिता मुंशी प्रेमचंद जी हैं।
प्रसंग - सत्यनिष्ठ दरोगा वंशीधर ने पंडित अलोपीदीन की गाड़ियों को रोक लिया था पंडित जी का विश्वास था कि रिश्वत से सभी काम हो जाते हैं।
व्याख्या - पंडित अलोपीदीन जी को धन की महिमा पर बहुत विश्वास था। उन्हें भरोसा था कि रिश्वत देने पर बड़े से बड़े काम निकल जाते हैं। अबे अक्सर यह कहा करते थे कि ऐसे संसार में तो सब धन की महिमा के आगे झुकती ही हैं, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का राज्य है। अतः वे धन के बलबूते पर स्वर्ग में भी स्थान पा जाएंगे। उनका यह कथन बिल्कुल सत्य था। उन्होंने वास्तव में दुनिया को धन के बदले बिकते देखा था। उनका यह कहना था कि न्याय और नीति सब धन के आगे खिलौनों की तरह है। धन की ताकत के आगे यह खिलौनों की भांति नाचते हैं। ऐसा विचार करके भी लेटे-ही-लेटे संदेशवाहक से बोले- 'तुम चलो दरोगा को बताओ कि हम अभी आ रहे हैं।' ऐसा कहकर उन्होंने बड़ी बेफिक्री से पान के बीड़े लगाए और उन्हें चबाया। फिर चादर ओढ़कर दरोगा के पास आकर धूर्ततापूर्वक बोले- बाबूजी, आपका आशीर्वाद चाहिए। हमसे कोई अपराध हो गया हो तो बताइए। हमारी गाड़ियां रोक दी गई है। हम ब्राह्मण हैं। हम पर आपकी कृपा होनी चाहिए। बंशीधर पंडित अलोपीदीन की धूर्ततापूर्ण बातों को सुनकर कठोरता से बोले - मुझे सरकार की ओर से आदेश हुआ है कि आप की गाड़ियों की जांच-पड़ताल की जाए।
4. आपने व्यर्थ का कष्ट उठाया। यह हो नहीं सकता कि इधर से जाएं और इस घाट के देवता को भेंट न चढ़ावे। मैं तो आपकी सेवा में स्वयं ही आ रहा था। बंशीधर पर ऐश्वर्य की मोहनी बंसी का कुछ प्रभाव ना पड़ा। ईमानदारी की नई उमंग थी। कड़क कर बोले- हम उन नमक हरामों में से नहीं हैं जो कोडियों पर अपना ईमान बेचते फिरते हैं। आप इस समय हिरासत में हैं। आपका कायदे के अनुसार चलना होगा। बस मुझे अधिक बातों की फुरसत नहीं है।
सन्दर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के पाठ 'नमक का दरोगा' से लिया गया है। इसके रचयिता मुंशी प्रेमचंद जी हैं।
प्रसंग - पंडित अलोपीदीन एक भ्रष्ट व्यापारी हैं ।वह रिश्वत देकर और बड़े अधिकारियों की सेवा करके काला धंधा करता है ।वह बड़े अफसरों से संबंध बनाकर अवैध माल इधर से उधर करता है तथा सरकारी कर्मचारियों से जरा भी नहीं घबराता ।जब उसकी किसी नए अफसर से टक्कर हो जाए तो वह खुशामद भरी वाणी से लोभ-लालच का पिटारा खोलकर उसे प्रसन्न कर लेता है।जब ईमानदार बंशीधर ने उसकी गाड़ी पकड़ ली तब पंडित अलोपीदीन का बंशीधर के लिए व्यवहार का वर्णन है।
व्याख्या - बंशीधर जी आपने क्यों कष्ट उठाया। हमारा तो काम ही यह है कि आपके क्षेत्र से होकर निकले और आपकी भेंट देकर सेवा करें ।हमारा काम तो आपकी सेवा करना ही है। मैं तो स्वयं आपके पास आ रहा था। सत्यनिष्ठ बंशीधर पर धन या वैभव के लोभ का प्रभाव नहीं पड़ा उन में ईमानदारी का उत्साह था। अतः कठोर शब्दों में पंडित अलोपीदीन से कहा कि हम उन नमक हराम लोगों में नहीं हैं जो अपने ईमान को धन के लालच में बेच देते हैं। आप अधिक बातें ना करें क्योंकि मुझे अधिक बातें करने का समय नहीं है। आप इस समय कैद में हैं आपका चालान किया जावेगा।
5. पंडित जी ने धर्म को धन का ऐसा निरादर करते कभी न देखा था। विचार किया यह अभी उद्दंड लड़का है। माया- मोह के जाल में अभी नहीं पडा। अल्हड़ है, झिझकता है। बहुत दीन-भावसे बोले- बाबू साहब, ऐसा न कीजिए, हम मिट जाएंगे। इज्जत धूल में मिल जाएगी। हमारा अपमान करने से आपके हाथ क्या आएगा। हम किसी तरह आप से बाहर थोड़े ही हैं।
शब्दार्थ - निरादर - अपमान। उद्दंड - शरारती, ढीठ। माया-मोह - संसार का आकर्षण। जाल- चक्कर। अल्हड़- मस्त। झिझकना- झेपना, सकुचाना। दीन-भाव - विनय का भाव, निवेदन। मिटना- नष्ट होना। इज्जत - साख, रुतबा। धूल में मिलाना- सम्मान गिराना।हाथ आना- उपलब्ध होना।
संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के पाठ 'नमक का दरोगा' से लिया गया है। इसके रचयिता मुंशी प्रेमचंद जी हैं।
प्रसंग - जब बंशीधर ने पंडित जी अलोपीदीन को हिरासत का आदेश सुनाया तब हिरासत का आदेश सुनते ही पंडित अलोपीदीन भौंचक्के रह गए। उन्हें ऐसी उम्मीद नहीं थी कि कोई दरोगा धन से अप्रभावित रहकर हिरासत के आदेश दे देगा। उन्हें तो यही विश्वास था कि सब अफसर बिकाऊ हैं। इसीलिए यह भी बिकाऊ होगा। उन्हें दरोगा का यह व्यवहार असंभव-सा लगा। पंडित जी के जीवन में यह पहला मौका था, जबकि उन्हें किसी से ऐसी कठोर बातें सुननी पड़ी, जैसे कि बंशीधर बाबू ने उन्हें सुनाईं।
व्याख्या - पंडित जी ने कभी जिंदगी में ऐसा मौका पहले नहीं देखा था जबकि धर्म ने धन का ऐसा अपमान किया हो। अक्सर तो धर्म की बातें धन के लालच के सामने झुकती ही आई थी। अतः पंडित जी ने मन में सोचा कि यह दरोगा अभी जिद्दी है, अड़ियल है, नया - नया जोश है इसमें। अभी ऐसे संसार का माया मोह छू नहीं पाया है। यह सांसारिक आकर्षणों से अनभिज्ञ है। इसलिए धर्म का ऐसा रौब दिखा रहा है। जल्दी ही रास्ते पर आ जाएगा। लेकिन बंशीधर के न मानने पर पंडित अलोपीदीन ने विनय पूर्वक कहा कि हमारे साथ खत्म हो जाएगी हम नष्ट हो जाएंगे। हमारा सम्मान समाप्त होने पर आपको क्या मिलेगा। हमारी प्रतिष्ठा बनी रहे आप जो कहेंगे वह हम करेंगे।
6. धर्म की इस बुद्धिहीन दृढ़ता और देव- दुर्लभ त्याग पर मन बहुत झुँझलाया।अब दोनों शक्तियों में संग्राम होने लगा। धन ने उछल उछल कर आक्रमण करने शुरू किए। एक से पाँच, पाँच से दस, दस से पंद्रह और पंद्रह से बीस हजार तक नौबत पहुँची, किंतु धर्म अलौकिक वीरता के साथ इस बहुसंख्यक सेना के सम्मुख अकेला पर्वत की भांति अटल अविचलित खडा था।
संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के पाठ 'नमक का दरोगा' से लिया गया है। इसके रचयिता मुंशी प्रेमचंद जी हैं।
प्रसंग - बंशीधर की कठोरता को देखकर अलोपीदीन का मन खीझने लगा। वह भ्रष्ट तरीके से नमक ले जाना चाहता था किन्तु दरोगा की धर्मपरायणता,कर्तव्यनिष्ठा और धन- त्यागी वृत्ति उसके इस उद्देश्य के पूरा होने में कठिनाई पैदा कर रही थी।
व्याख्या - धर्म की इस विचारहीन कठोरता और देवताओं में भी दुर्लभ इस त्याग को देखकर अलोपीदीन का मन खीजने लगा। धर्म और धन में, कर्तव्य और लालच में, असत्य और सत्य में, युद्ध होने लगा। पंडित अलोपीदीन ने रिश्वत के रूप में एक हजार रुपये की राशि को बढ़ाकर धीरे-धीरे बीस हजार रुपये कर दिया। परन्तु इतने पर भी दारोगा फिर भी अडिग था। उसकी धर्मनिष्ठा तेजस्वी वीर के समान धन की इस बहु शक्तिशालिनी सेना के सम्मुख लड़ती रही। उसका विश्वास पर्वत के समान अटल तथा अडिग था।अतः वह बिना रिश्वत के फेर में पड़े अपनी ईमानदारी पर अड़ा रहा। वह बिका नहीं। न ही उसने पंडित अलोपीदीन को छोड़ा।
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7. दुनिया सोती थी, पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो बालक-वृद्ध सब के मुंह से यही बात सुनाई देती थी। जिसे देखिए, वही पंडित जी के इस व्यवहार पर टीका टिप्पणी कर रहा था, निंदा की बौछारें हो रही थी, मानो संसार से अब पापी का पाप कट गया। पानी को दूध के नाम से बेचने वाला ग्वाल, कल्पित रोजनामचे भरने वाले अधिकारी वर्ग, रेल में बिना टिकट सफर करने वाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज बनाने वाले सेठ और साहूकार, यह सब-के-सब देवताओं की भांति गरदनें चला रहे थे।
संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के पाठ 'नमक का दरोगा' से लिया गया है। इसके रचयिता मुंशी प्रेमचंद जी हैं।
प्रसंग - शहर में पंडित अलोपीदीन ने का मान-सम्मान और नाम था। लोगों उन्हें एक सफल और इज्जतदार आदमी समझते थे। परंतु जब भी नमक की चोरी के सिलसिले में पकड़े गए और अदालत में हथकड़ी लगाकर लाए गए तो शहर भर के लोग भौंचक्के रह गए। इस समाचार को सुनकर उन में हलचल मच गई।
व्याख्या - रात हो गई थी फिर भी दुनिया के लोग जबान चला रहे थे। सवेरा होते ही बच्चे-बूढ़े सभी पंडित अलोपीदीन जैसे सम्मानित सेठ की गिरफ्तारी को लेकर तरह-तरह की बातें बना रहे थे तथा उनकी निंदा कर रहे थे। जो लोग खुद भ्रष्टाचारी और बेईमान हैं। जो दूध के नाम पर पानी बेंचते हैं, नकली बहीखाते बनाते हैं, बिना टिकट रेल यात्रा करते हैं, सेठ और साहूकार जाली दस्तावेज बनवाते हैं- वे सब भी सेठ अलोपीदीन के भ्रष्टाचार की खुलेआम निंदा कर रहे थे।
8. न्याय के मैदान में धर्म और धन में युद्ध ठन गया। वंशीधर चुपचाप खड़े थे। उनके पास सत्य के सिवा ना कोई बल था, ना स्पष्ट भाषण के अतिरिक्त कोई शस्त्र। गवाह थे, किंतु लोभ से डाँवाडोल।
संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के पाठ 'नमक का दरोगा' से लिया गया है। इसके रचयिता मुंशी प्रेमचंद जी हैं।
प्रसंग - जैसे ही बंदी अलोपीदीन अदालत में पहुंचे, तब जो परिस्थिति उनके विरोध में दिखाई दे रही थी, वह उनके पक्ष में हो गई। क्योंकि अदालत का प्रत्येक कर्मचारी सेठ जी के प्रति सहानुभूति जतला रहा था। वकीलों ने सेठ जी को बचाने के लिए अपने कानून के दाँव-पेंच लड़ाने शुरू किए।
व्याख्या - अदालत की न्याय-भूमि में धर्म और धन के बीच में युद्ध ठन गया। एक और धर्म के प्रतिनिधि थे दरोगा वंशीधर, दूसरी ओर धन के स्वामी थे अलोपीदीन। वंशीधर चुपचाप खड़े थे। उनके पास धन की ताकत से लड़ने के लिए केवल 'सत्य' था और था 'स्पष्ट भाषण'। इनके अतिरिक्त इनके पास कोई ताकत नहीं थी। उनके पास गवाह भी थे, किंतु वे सभी अलोपीदीन के द्वारा दिए गए लोग के कारण डाँवाडोल थे। कोई भी सच के लिए अडिग नहीं था।
9. यहां तक कि मुंशी जी को न्याय भी अपनी ओर से कुछ खींचा हुआ दिख पड़ता था। वह न्याय का दरबार था, परंतु उसके कर्मचारियों पर पक्षपात का नशा छाया हुआ था। किंतु पक्षपात और न्याय का क्या मेल? जहां पक्षपात हो, वहां न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के पाठ 'नमक का दरोगा' से लिया गया है। इसके रचयिता मुंशी प्रेमचंद जी हैं।
प्रसंग - अदालत के सभी छोटे-बड़े कर्मचारी और अधिकारी अलोपीदीन के पैसों से बिके हुए थे। अतः सभी ने वंशीधर के विरुद्ध काम किया। इस प्रकार वंशीधर अकेले पड़ गए और मुकदमा शीघ्र ही निपट गया वे सच्चे होते हुए भी दोषी सिद्ध हुए।
व्याख्या - वंशीधर बाबू को अन्य लोगों और गवाहों ने तो निराश किया ही था, न्याय भी उन्हें कुछ अपने से नाराज दिखाई दे रहा था अर्थात न्यायालय का वातावरण उनके पक्ष में नहीं था। सभी लोग शिर्डी जी के प्रति सहानुभूति जतला रहे थे। अदालत यूं तो न्याय के लिए थी, किंतु न्यायालय के कर्मचारी पक्षपात से ग्रस्त थे। वे सेठ जी को खुश करने के लिए उनके पक्ष में झुके हुए थे। पक्षपात और न्याय कभी साथ-साथ नहीं चल सकते। जहां पक्षपात होता है, वहां कदापि न्याय मिलने की संभावना नहीं की जा सकती।
10. स्वजन-बांधवों ने रुपयों की लूट की। उदारता का सागर उमड़ पड़ा। उसकी लहरों ने अदालत की नींव तक हिला दी। जब वंशीधर बाहर निकले तो चारों ओर से उनके ऊपर व्यंग्यबाणों की वर्षा होने लगी। चपरासियों ने झुक झुक कर सलाम किए। किंतु इस समय एक-एक कटुवाक्य, एक-एक संकेत उनकी गर्वाग्नि को प्रज्वलित कर रहा था। सदा चेते इस मुकदमे में सफल होकर वह इस तरह अकड़ते हुए न चलते। आज उन्हें संसार का एक खेत जनक विचित्र अनुभव हुआ। न्याय और विद्वता, लंबी-चौड़ी उपाधियां, बड़ी-बड़ी दाढ़ियां और ढीले चोंगे एक भी सच्चे आदर के पात्र नहीं है।
सन्दर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के पाठ 'नमक का दरोगा' से लिया गया है। इसके रचयिता मुंशी प्रेमचंद जी हैं।
प्रसंग - मुकदमे में पंडित अलोपीदीन की जीत हो गई। जैसे ही यह फैसला वकीलों ने सुना वे खुशी से उछल पड़े। उन्होंने ही झूठ को सच बनाया था। उन्होंने ही चोरी करने के बावजूद सेठ अलोपीदीन को अपने झूठ तर्क जाल से मुक्त कराया था। अतः उन्हें खूब प्रसन्नता मिली। उन्हें सेठ जी से इनाम मिलने की भी आशा थी। पंडित अलोपीदीन मुस्कुराते हुए अदालत से बाहर निकले। उन्हें चोरी के बावजूद बाइज्जत बरी होने की खुशी थी और अपनी शक्ति पर गर्व भी था। वंशीधर को अपने सत्य पर भरोसा था अतः वे अकड़कर चल रहे थे।
व्याख्या - सेठ जी के रिश्तेदारों और स्वजनों ने रुपए लूटा दिए। जो जितने पैसों में प्रसन्न हुआ, उसे उतने दिए गए। मानो अलोपीदीन की उदारता का समुद्र उमड़ पड़ा। उसकी लहरों ने अदालत की नींव हिला दी। आशय यह है कि अलोपीदीन ने के द्वारा दिए गए धन से अदालत की ईमानदारी और सत्यनिष्ठा नष्ट हो गई। जब सत्यनिष्ठ वंशीधर बाबू अदालत से बाहर निकले तो चारों ओर से उन पर व्यंग्य-वचन तीर की तरह पढ़ने लगे। लोग उनकी ईमानदारी का मजाक उड़ाने लगे। चपरासियों ने उन्हें झुक-झुक कर सलाम किए परंतु उनके सलामों में भी यह व्यंग्य था कि बच्चा! और दिखा लो ईमानदारी। इस अवसर पर जनता के मुख से निकला हुआ एक-एक कटुवचन और चपरासियों द्वारा किया गया एक-एक संकेत उनके गर्व को और अधिक तीव्र कर रहा था। शायद इस मुकदमे में सफल होने पर वे इतना अकड़कर न चलते, जितना कि अब चल रहे थे। परंतु साथ ही उन्हें आज संसार का अत्यंत दुख:दायक और अजीब अनुभव हुआ। अजीब और दुख:दायक इसलिए, क्योंकि उसने सोचा था कि लोग उसकी ईमानदारी की प्रशंसा करेंगे, किंतु हुआ विपरीत। लोगों ने उल्टे उसकी इमानदारी का मजाक उड़ाया और बेईमानी का साथ दिया। उसे लगा कि यह दुनिया सत्य और निष्ठा को चाहती ही नहीं। उसे प्रतीत हुआ कि नहीं आए और विद्वता की बातें, यह बड़े-बड़े न्यायधीश और कानून के विद्वान, यह लंबी-चौड़ी उपाधियां, ये लंबी-लंबी दाढ़ियों वाले बड़े-बुजुर्ग लोग, यह ढीले चोंगे वाले न्यायाधीश- सबके सब बेईमान दुष्चरित्र और असम्मानीय हैं। इनमें सत्य और न्याय का लेशमात्र भी अंश नहीं है। अतः यह निंदनीय है।
11. आप ईमानदार बनने चले हैं। घर में चाहे अंधेरा हो, मस्जिद में अवश्य दिया जलाएंगे। खेद ऐसी समझ पर! पढ़ना-लिखना सब अकारथ गया।
संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के पाठ 'नमक का दरोगा' से लिया गया है। इसके रचयिता मुंशी प्रेमचंद जी हैं।
प्रसंग - वंशीधर के पिता वंशीधर की इमानदारी पर पहले से खिन्न थे। वे उस पर व्यंगय करते हुए कहते हैं।
व्याख्या - वाह! तेरी ईमानदारी! तू तो वही काम कर रहा है- घर में अंधेरा चाहे हो लेकिन मस्जिद में दिया अवश्य जलेगा अर्थात घर की अवस्था शोचनीय है, मगर यह है कि ईमानदारी और समाज-हित की चिंता में लगा हुआ अपना समय बर्बाद कर रहा है। ऐसी मूर्खता पर दु:ख होता है। इस वंशीधर को तो पढ़ाना-लिखाना सब बेकार गया। हमने तो इसे इसलिए पढ़ाया-लिखाया था कि जैसे-तैसे कमाकर हमारा घर भरे और हमारी आशाएं पूरी करें।
12. पंडित अलोपीदीन ने वंशीधर से कहा- दरोगा जी, इसे खुशामद ना समझिए, खुशामद करने के लिए मुझे इतना कष्ट उठाने की जरूरत न थी। उस रात को आपने अपने अधिकार-बल से मुझे अपनी हिरासत में लिया था किंतु आज मैं स्वेच्छा से आप की हिरासत में हूं। मैंने हजारों रईस और अमीर देखें, हजारों उच्च पदाधिकारियों से काम पड़ा, किंतु मुझे परास्त किया तो आपने। मैंने सबको अपना और अपने धन का गुलाम बनाकर छोड़ दिया।
सन्दर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के पाठ 'नमक का दरोगा' से लिया गया है। इसके रचयिता मुंशी प्रेमचंद जी हैं।
प्रसंग - अलोपीदीन वंशीधर की सत्यनिष्ठा और दृढ़ चरित्र से प्रभावित होकर उसे अपनी नौकरी में रखना चाहते थे। उन्हें जितने भी आदमी मिलते थे, वह सब लोभी, लालची और रिश्वतखोर थे। वे चाहते थे कि उनकी पूरी संपत्ति को संभालने वाला कोई ईमानदार व्यक्ति मिले। उन्हें वंशीधर ऐसा ईमानदार व्यक्तित्व लगा। इसलिए वे उसे अपनी सेवा में रखने के लिए स्वयं उसके पास चलकर आए थे।
व्याख्या - पंडित अलोपीदीन ने वंशीधर से कहा- दरोगा जी, मैंने जो यह आपकी प्रशंसा अभी की है मैं इसी के लिए आपके यहां नहीं आया हूं। आप की खुशामद करने के लिए मुझे यहां आने की जरूरत नहीं थी। मैं एक विनय लेकर आपके पास आया हूं। उस नमक-चोरी वाली रात को आपने मुझे अपने अधिकार की ताकत से अपने हिरासत में लिया था, किंतु आज मैं अपनी इच्छा से आप की कैद में चला आया हूं। मैं आपसे बहुत प्रभावित हुआ हूं। मैंने हजारों अमीरों और रईस धन पतियों को देखा है, हजारों उच्चाधिकारियों से भी मेरा वास्ता पड़ा है, कोई भी मेरी धन की शक्ति के कारण मुझे परास्त नहीं कर पाया है। सबको मैंने अपने धन-बल से विजित किया है। मुझे यदि किसी ने परास्त किया है तो केवल आपने, आपकी सत्यनिष्ठा ने। मैंने सबको अपना और अपने धन का गुलाम बना लिया, किंतु आप लालच में नहीं आए। यह आप की विशेषता है। मैं आपसे अत्यंत प्रभावित हूं।
13. अलोपीदीन ने कलमदान से कलम निकाली और उसे वंशीधर के हाथ में देकर बोले- न मुझे विद्वता की चाह है, न अनुभव की, न मर्मज्ञता कि, न कार्यकुशलता की। एनी गुणों के महत्व का परिचय खूब पा चुका हूं। अब सौभाग्य और सुअवसर ने मुझे वह मोती दे दिया है जिसके सामने योग्यता और विद्वता की चमक फीकी पड़ जाती है। यह कलम लीजिए, अधिक सोच-विचार न कीजिए, दस्तखत कर दीजिए। परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला बेमुरौवत, उद्दंड, कठोर परंतु धर्मनिष्ठ दरोगा बनाए रखें।
संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' के पाठ 'नमक का दरोगा' से लिया गया है। इसके रचयिता मुंशी प्रेमचंद जी हैं।
प्रसंग - पंडित अलोपीदीन को संपत्ति की रक्षा और देखभाल के लिए एक ईमानदार और दृढ़ चरित्र वाले अफसर की जरूरत थी। वंशीधर का व्यक्तित्व ऐसा ही प्रभावशाली था। इसी भरोसे उन्होंने उसे नौकरी पर रख लिया।
व्याख्या - अलोपीदीन ने अपने कलामदान से कलम निकाली और उसे वंशीधर के हाथों में देकर बोले- न मुझे ज्ञान की चाह है, न अधिक अनुभवी होने की, न कार्य-कुशल कर्मचारी की। इन गुणों के महत्व का परिचय मुझे खूब मिल चुका है। यह सभी विद्वान, अनुभवी और कार्य-कुशल लोग इमानदारी के अभाव में कुछ भी हित नहीं कर सकते। इसलिए मैं इनसे तंग आ चुका हूं। जितने भी लोग मुझे मिले, वे सभी बेईमान मिले। आज सौभाग्य और शुभ अवसर ने मुझे इमानदारी, सत्यता और निष्ठा रूपी वह मोती दिया है, जिसके सामने योग्यता, विद्वता आदि गुणों की चमक फीकी पड़ जाती है। आपकी ईमानदारी के सामने मुझे सभी योग्य और अनुभवी कर्मचारी फीके जान पड़ते हैं। आत: यह कलम पकड़िए। अधिक सोच-विचार न कीजिए, अपने हस्ताक्षर कर दीजिए। मेरी प्रभु से यही प्रार्थना है कि वह तुम्हें सदैव वैसा ही नदी किनारे वाला, आंखों की शर्म ना मानने वाला, कठोर, जिद्दी किंतु धर्म पर अडिग रहने वाला दरोगा बनाए रखें। आशय यह है कि तुम मैं सत्यनिष्ठा, कर्तव्यपरायणता, धर्मपरायणता आदि गुण बने रहने चाहिए। उन्हीं के कारण तुम्हारा मूल्य है।
पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
पाठ के साथ -
प्रश्न 1. कहानी का कौन सा पात्र आपको सर्वाधिक प्रभावित करता है और क्यों?
उत्तर :- कहानी में हमें मुंशी वंशीधर का पात्र सबसे अधिक प्रभावित करता है क्योंकि वे ईमानदार और कर्तव्यपरायणता के गुणों में ढले पात्र हैं।
प्रश्न 2. 'नमक का दरोगा' कहानी में पंडित अलोपीदीन के व्यक्तित्व के कौन से दो पहलू (पक्ष) उभरकर आते हैं?नमक
उत्तर :- 'नमक का दरोगा' कहानी में पंडित अलोपीदीन के व्यक्तित्व के दो महत्वपूर्ण पहलू उभर कर सामने आते हैं। पहला वह जब वैधानिक के बल पर मुक्त हो जाते हैं और दूसरा वह जब वह बंशीधर की ईमानदारी तथा धर्मनिष्ठता से प्रभावित होकर उसे अपने यहां उच्च पद पर आसीन करते हैं।
प्रश्न 3. कहानी के लगभग के सभी पात्र समाज की किसी-ना-किसी सच्चाई को उजागर करते हैं। निम्नलिखित पात्रों के संदर्भ में पाठ से अंश को उद्धत करते हुए बताइए कि यह समाज की के सच्चाई को उजागर करते हैं -
(क) वृद्ध मुंशी,
(ख) वकील,
(ग) शहर की भीड़ ।
उत्तर :- (क) वृद्ध मुंशी - वृद्ध मुंशी समाज में व्याप्त रिश्वतखोरी को उजागर करता है। वह अपने बेटे को नौकरी ढूंढने जाते समय ऊपरी आय के विषय में जमकर बताता है। वह हर तरह से अपने बेटे के मन में ऊपरी आय का लोभ पैदा करने का प्रयास करता है।
(ख) वकील - वकीलों के माध्यम से यह उजागर हुआ है कि वे पैसे वालों के लिए अन्याय का भी साथ देते हैं। धन के लोभ में फंसकर न्याय का गला घोट देते हैं।
(ग) शहर की भीड़ - जब पंडित जी को गिरफ्तार किया जाता है तो शहर की भीड़ उन्हें देखने के लिए उमड़ पड़ती है। जिससे उजागर होता है कि आम जनता को मनोरंजन के लिए कोई-न-कोई अवसर चाहिए।
प्रश्न 4. नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूंढना जहां कुछ ऊपरी आए हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्त्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है इसी से उसकी बरकत होती है, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊं।
(क) यह किसकी उक्ति है?
(ख) मासिक वेतन को पूर्णमासी का चांद क्यों कहा गया है?
(ग) क्या आप एक पिता के ऐसे वक्तव्य से सहमत हैं?
उत्तर :- (क) यह उक्ति दरोगा वंशीधर के पिता वृद्ध मुंशी की है।
(ख) मासिक वेतन एक निश्चित तिथि पर मिलता है और फिर धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार पूर्णमासी का चांद एक रात को पूरा दिखता है और फिर धीरे-धीरे कम होते हुए लुप्त हो जाता है।
(ग) नहीं, एक पिता को अपने पुत्र से ऐसी बात नहीं करनी चाहिए। मेरा अनुभव है यह है कि ऊपरी आय से मन में ग्लानि उपजति है। मासिक वेतन से मरने प्रसन्न होता है।
प्रश्न 5. 'नमक का दरोगा' कहानी के कोई दो अन्य शीर्षक बताते हुए उसके आधार को भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :- नमक का दरोगा कहानी के अन्य शीर्षक 'ईमानदार दरोगा' अथवा कर्तव्य परायण दरोगा रखे जा सकते हैं। कहानी में दरोगा वंशीधर एक ईमानदार व्यक्ति के रूप में चित्रित है। इसीलिए पहला शीर्षक उपयुक्त है। वहीं वह अपना कर्तव्य पूर्ण समर्पण से निभाता है। इसलिए दूसरा शीर्षक भी उपयुक्त है।
प्रश्न 6. कहानी के अंत में अलोपीदीन के बंशीधर को मैनेजर नियुक्त करने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं तर्क सहित उत्तर दीजिए। आप इस कहानी का अंत किस प्रकार करते ?
उत्तर :- अलोपीदीन का बंशीधर को मैनेजर नियुक्त करने के पीछे उसकी धर्मनिष्ठा, ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता तथा सच्चाई प्रमुख कारण हो सकते हैं।
हम भी इस कहानी का अंत कुछ इसी प्रकार करते। कहानी का यह अंत पूर्णता उपयुक्त है।
पाठ के आस-पास --
प्रश्न 1. दरोगा बंशीधर गैर कानूनी कार्यों की वजह से पंडित अलोपीदीन को गिरफ्तार करता है, लेकिन कहानी के अंत में इसी पंडित अलोपीदीन की सह्र्दयता से मुग्ध होकर उसके यहां मैनेजर की नौकरी को तैयार हो जाता है। आपके विचार से बंशीधर का ऐसा करना उचित था? आप उसकी जगह होते तो क्या करते?
उत्तर :- बंशीधर का ऐसा करना पूर्णत: उचित था क्योंकि उसने अपने कर्तव्य और ईमानदारी के कारण पंडित अलोपीदीन को गिरफ्तार किया था। पंडित द्वारा उसे नौकरी पर रखना उसकी इन्हीं विशेषताओं का प्रतिफल था। यदि हम बंशीधर की जगह होते तो हम भी नौकरी स्वीकार कर लेते।
प्रश्न 2. नमक विभाग के दरोगा पद के लिए बड़ों बड़ों का जी ललचाता था। वर्तमान समाज में ऐसा कौन-सा पद होगा जिसे पाने के लिए लोग लालायित रहते होंगे और क्यों?
उत्तर - वर्तमान समाज में अनेक ऐसे पर हैं जिन्हें पाने के लिए लोग ललायित रहते हैं। जन्म में एक पुलिसकर्मी, परिवहनकर्मी, सरकारी डॉक्टर, सरकारी विभागों के अफसर, बड़े-बड़े नेताओं के सहायक आदि।
लोगन पदों को पाने के लिए लालायित इसलिए रहते हैं क्योंकि इनमें अच्छी आय के साथ-साथ मान-सम्मान भी मिलता है।
प्रश्न 3. अपने अनुभवों के आधार पर बताइए कि जब आपके तर्कों ने आपके भ्रम को पुष्ट किया हो।
उत्तर :- एक बार किसी बड़े नेता को एक घटना के कारण पुलिस ने गिरफ्तार किया। लेकिन हमें लगता था कि यह अपने धन और बल के कारण मुक्त हो जाएगा और सचमुच ऐसा ही हुआ।
प्रश्न 4. पढ़ना लिखना सब अकारथ गया। वृद्ध मुंशी जी द्वारा यह बात एक विशेष संदर्भ में कही गई थी। अपने निजी अनुभवों के आधार पर बताइए -
(क) जब आपको पाना लिखना व्यर्थ लगा हो।
(ख) जब आप को पढ़ना लिखना सार्थक लगा हो।
(ग) पढ़ना लिखना को किस अर्थ में प्रयुक्त किया गया होगा - साक्षरता अथवा शिक्षा? (क्या आप इन दोनों को समान मानते हैं?)
उत्तर :- (क) जब पढ़ने-लिखने के बाद हमें नौकरी नहीं मिलती तो हमें पढ़ना लिखना व्यर्थ लगता है।
(ख) जब मैंने पढ़ाई-लिखाई के दौरान अच्छा साहित्य बड़ा और उसे अपने जीवन में उतारा तो मुझे पढ़ना-लिखना सार्थक लगा।
(ग) 'पढ़ना-लिखना' को शिक्षा के अर्थ में प्रयुक्त किया गया होगा। हम इन दोनों को समान मानते हैं।
प्रश्न 5. 'लड़कियां हैं, वे घास-फूस की तरह बढ़ती चली जाती है।' वाक्य समाज में लड़कियों की स्थिति की किस वास्तविकता को प्रकट करता है?
उत्तर :- समाज में लड़कियों को बोझ माना जाता है क्योंकि उसके बड़े होने पर समाज को उसकी शादी की चिंता सताने लगती है। उसके विवाह में काफी धन खर्च करना पड़ता है। यह बातें इसी स्थिति की वास्तविकता को प्रकट करता है।
प्रश्न 6. इसीलिए नहीं कि अलोपीदीन ने क्यों यह कर्म किया बल्कि इसलिए कि वह कानून के पंजे में कैसे आए। ऐसा मनुष्य जिसके पास असाध्य साधन करने वाला धन और अनन्य वाचालता हो, वह क्यों कानून के पंजे में आए। प्रत्येक मनुष्य उनसे सहानुभूति प्रकट करता था। अपने आसपास अलोपीदीन जैसे व्यक्तियों को देखकर आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? उपरोक्त टिप्पणी को ध्यान में रखते हुए लिखें।
उत्तर :- अपने आसपास अलोपीदीन जैसे व्यक्तियों को देखकर हमारे मन में यह प्रतिक्रिया होती है कि ऐसे व्यक्ति जो गलत काम करते हैं पकड़े क्यों नहीं जाते हैं। समाज में ऐसे दृढ़ चरित्र लोग क्यों नहीं है जो बंशीधर जैसे चरित्रवान हों।
समझाइए तो जरा -
प्रश्न 1. नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर की मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए।
उत्तर - इस वाक्य में व्यंग्य है। महत्व बड़े पद का नहीं है, ऊपर की कमाई का है। अतः सांसारिक रूप से चालक, स्वार्थी और समझदार व्यक्ति को ऊपरी आय वाली नौकरी करनी चाहिए।
प्रश्न 2. ऐसे विस्तृत संसार में उनके लिए धैर्य अपना मित्र, बुद्धि अपनी पथ-प्रदर्शक और आत्मावलंबन ही अपना सहायक था।
उत्तर :- भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के इस युग में बंशीधर जैसे व्यक्ति अपने धैर्य, बुद्धि तथा स्वावलंबन के सहारे ही जी सकते हैं। हमारे चारों और भ्रष्टाचार की दलदल है। केवल भाई व्यक्ति और दलदल से बच सकता है जो धैर्यवान हो, बुद्धिमान हो तथा स्वाबलंबी हो।
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प्रश्न 3. तर्क ने भ्रम को पुष्ट किया।
उत्तर :- जो पहले से ही सोच रहे थे, वह तर्क से स्पष्ट हो गया। बंशीधर को रात को सोते-सोते अचानक पुल पर से जाती हुई गाड़ियों की गड़गड़ाहट सुनाई दी। उन्हें संदेह हुआ कि जरूर इसमें कुछ गैर कानूनी काम होगा। उन्होंने तर्क से सोचा कि कोई मनुष्य रात के अंधेरे में गाड़ियां क्यों ले जाएगा। यह सोचते ही उनके मन में उठा भरा और पक्का हो गया। उन्हें लगा कि जरूर इसमें गोलमाल है।
प्रश्न 4. न्याय और नीतीश और लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती हैं, नचाती हैं।
उत्तर :- इसका अर्थ है कि धन के बल पर न्याय और नीति को खिलौने की तरह नचाया जा सकता है। ईमानदार पुरुषों को बेईमान और बेईमान को सज्जन पुरुष सिद्ध किया जा सकता है।
प्रश्न 5. दुनिया सोती थी, पर दुनिया की जीभ जागती थी।
उत्तर :- अभी लोग रात में सोए हुए थे कि पंडित अलोपीदीन के गिरफ्तार होने की खबर कानोंकान फैल गई। लोग इस विषय में बातें करने लगे।
प्रश्न 6. खेद ऐसी समझ पर! पढ़ना-लिखना सब अकारथ गया।
उत्तर :- बंशीधर के बूढ़े पिता चाहते थे कि बेटा खूब रिश्वत खाए परंतु जब उसने सत्यनिष्ठा का आचरण किया और नौकरी से मुअत्तल कर दिए गए तो उन्हें लगा की बेटे की पढ़ाई-लिखाई बेकार गई। आखिर उन्होंने भ्रष्टाचार करने के लिए ही तो उसे पढ़ाया था।
प्रश्न 7. धर्म ने धन को पैरों तले कुचल।
उत्तर :- चालीस हजार रुपए रिश्वत मिलती देखकर भी कर्तव्यनिष्ठ बंशीधर अपने ईमान पर टिके रहे। तब लेखक को धर्म की शक्ति का अहसास हुआ। उन्हें लगा की बंशीधर की धार्मिक शक्ति मैं अलोपीदीन की धन शक्ति को कुचलकर व्यर्थ कर।
प्रश्न 8. न्याय के मैदान में धर्म और धन में युद्ध ठन गया।
उत्तर :- न्याय के परिसर (अदालत) में बंशीधर की धर्म शक्ति और अलोपीदीन की धन शक्ति (घुस) में युद्ध छिड़ गया। इधर बंशीधर सत्य मार्ग पर डटा हुआ था। उधार अलोपीदीन रिश्वत के बल पर अदालत के सभी अमलों, वकीलों और न्यायाधीशों को खरीदने में लगा हुआ था। दोनों में संघर्ष चल रहा था।
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