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प्रश्न संख्या 1. सविनय अवज्ञा आंदोलन क्या है संक्षिप्त टिप्पणी
सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत
सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत महात्मा गांधी के नेतृत्व में 12 मार्च वर्ष 1930 में की गई थी। महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक हथियार के रूप में प्रयोग किया था। इस आंदोलन की शुरुआत महात्मा गांधी के प्रसिद्ध दांडी मार्च के कारण हुई थी। दरअसल 12 मार्च 1930 को साबरमती आश्रम से महात्मा गांधी ने आश्रम के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर दांडी मार्च का आयोजन किया था। इस यात्रा में महात्मा गांधी एवं आश्रम के लगभग 78 सदस्यों ने पैदल यात्रा आरंभ की थी। इसके बाद 6 अप्रैल 1930 को दांडी पहुंचने के पश्चात महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन द्वारा निर्मित नमक कानून का उल्लंघन किया। अंग्रेजी शासन के अनुसार किसी भी भारतीय द्वारा नमक बनाए जाने का कार्य गैरकानूनी माना जाता था क्योंकि नमक पर पूर्ण रूप से अंग्रेजी हुकूमत का एकाधिकार स्थापित था। महात्मा गांधी ने एक मुट्ठी नमक को उठाकर अंग्रेजी सरकार की अवज्ञा की थी। इसी के साथ नमक कानून की अवज्ञा करने की क्रिया को पूरे देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन के नाम से जाना जाने लगा ।
सविनय अवज्ञा आंदोलन क्यों शुरू किया गया
सविनय अवज्ञा आंदोलन को फरवरी वर्ष 1930 कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा पूर्ण स्वराज प्राप्त करने हेतु आरंभ किया गया था जिसका नेतृत्व महात्मा गांधी ने किया था। माना जाता है कि वर्ष 1930 में पूरे भारत में आर्थिक मंदी का गहरा प्रभाव था जिसके कारण भारतीय जनता एवं ब्रिटिश पूंजीपति वर्ग में काफी असंतोष फैला हुआ था। महात्मा गांधी ने आर्थिक मंदी के प्रभाव का लाभ उठाते हुए सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की थी। महात्मा गांधी आश्रम के अन्य सहयोगियों के साथ साबरमती आश्रम से लगभग 240 किलोमीटर दूर पद यात्रा करके दांडी तट पर पहुंचे थे सविनय अवज्ञा आंदोलन मुख्य रूप से अंग्रेजी सरकार के खिलाफ किया जाने वाला एक आंदोलन था जिससे भारतीय जनता बेहद प्रभावित हुई। दरअसल ब्रिटिश शासन के द्वारा नमक उत्पादन एवं विक्रय पर बड़ी मात्रा में कर लगाया गया था जिसके कारण भारत के नागरिक इस कानून से मुक्त होना चाहते थे इसीलिए इस आंदोलन की शुरुआत की गई थी।
सविनय अवज्ञा आंदोलन के मुख्य चरण
• सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू किए जाने वाले दांडी यात्रा से हुई थी। महात्मा गांधी के आवाहन पर पूरे देश की जनता ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में अपनी भागीदारी सुनिश्चित की थी। सविनय अवज्ञा आंदोलन का उदय कई मुख्य चरणों में हुआ था जो कुछ इस प्रकार हैं:-
• सविनय अवज्ञा आंदोलन में सर्वप्रथम जनता के द्वारा यह निर्णय लिया गया कि ब्रिटिश सरकार को किसी भी प्रकार का कर नहीं दिया जाएगा। सविनय अवज्ञा आंदोलन के माध्यम से भारतीय नागरिकों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन किया था।
• दांडी यात्रा के दौरान शुरू हुए सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारण भारतीय मूल के नागरिकों द्वारा विदेशी वस्त्रों का पूर्ण रूप से विरोध किया गया था। इस दौरान विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई एवं स्वदेशी वस्तुओं को अपनाया जाने लगा जिससे ब्रिटिश सरकार काफी प्रभावित हुई थी।
• सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारण भारतीय विद्यार्थियों द्वारा सरकारी विद्यालयों का मुख्य रूप बहिष्कार किया गया था। इसके अलावा सभी सरकारी कर्मचारियों को दफ्तरों में जाने से भी रोका गया। यह महात्मा गांधी द्वारा किए जाने वाली एक महत्वपूर्ण पहल थी जिसके माध्यम से ब्रिटिश सरकार का पूर्ण रूप से विरोध किया गया।
• सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान सभी सरकारी शराब की दुकानों पर धरना दिया जाने लगा जिससे ब्रिटिश सरकार को भारी नुकसान का सामना करना पड़ा। दरअसल भारतीय नागरिक किसी भी रूप में ब्रिटिश सरकार को कर नहीं देना चाहते थे जिसके कारण आंदोलनकारियों द्वारा यह महत्वपूर्ण कदम उठाया गया था। सविनय अवज्ञा आंदोलन के अंतर्गत उन सभी नियमों एवं कानूनों का उल्लंघन किया गया जो आत्म निर्णय के सिद्धांतों के विरुद्ध माने जाते हैं।
सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारणों एवं परिणामों का वर्णन करें
सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारण
सविनय अवज्ञा आंदोलन के कई प्रमुख कारण थे जो कुछ इस प्रकार हैं:-
• वर्ष 1930 के दौरान भारतीय कृषिकों की आर्थिक स्थिति विश्वव्यापी मंदी के कारण बेहद खराब हो चुकी थी जिसके कारण सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की गई। दरअसल, अंग्रेजी सरकार द्वारा भारतीय मूल के व्यक्तियों से भारी मात्रा में चुकाए जाने हेतु दबाव डाला जाता था जिसके कारण भारत के नागरिकों एवं कृषिकों की आर्थिक दशा बेहद खराब हो चुकी थी।
• सन 1927 में साइमन कमीशन का बहिष्कार किया गया था क्योंकि आयोग में किसी भी भारतीय सदस्य की सदस्यता मौजूद नहीं थी। इसके अलावा ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1928 में जवाहरलाल नेहरू समिति की सूचना को भी ठुकरा दिया था जिसके कारण सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की गई थी।
• ब्रिटिश सरकार ने भारतीय मूल के लोगों को औपनिवेशिक स्वराज्य प्रदान करने से इंकार कर दिया था जिसके कारण भारत की जनता में ब्रिटिश सरकार के प्रति निराशा फैल चुकी थी। इस स्थिति में सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत करना अत्यंत आवश्यक हो गया था।
• वर्ष 1929 में वैश्विक मंदी के कारण भारत की आर्थिक स्थिति बेहद प्रभावित हुई थी जिसके फलस्वरूप भारत में उत्पादों के दामों में भारी वृद्धि हुई थी। इसके कारण भारत की जनता में असंतोष की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। इसके अलावा भारत नौकरशाही में भी तेजी से वृद्धि हुई थी जिसके कारण भारतीय जनता बेहद नकारात्मक रूप से प्रभावित हुई थी।
• भारत में मजदूर एवं निम्न वर्गीय लोगों की दशा सोचनीय हो गई थी जिसके कारण उनमें साम्यवादी विचारों का उदय हो रहा था। इसके साथ ही क्रांतिकारियों की गतिविधियों में भी वृद्धि हुई थी जिसके कारण महात्मा गांधी बेहद चिंतित अवस्था में थे। महात्मा गांधी को यह भय था कि देश के आंदोलनकारी अहिंसा के मार्ग को छोड़कर हिंसा के मार्ग को ना धारण कर लें। महात्मा गांधी का यह मानना था कि यदि देश की स्वतंत्रता के लिए शांतिपूर्ण ढंग से किसी आंदोलन का आयोजन ना किया गया तो देश में हिंसात्मक क्रांति की संभावनाओं में वृद्धि हो सकती है। इसी कारण महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की थी।
• वर्ष 1929 में कांग्रेस समिति ने भारत में पूर्ण स्वतंत्रता को स्थापित करने का लक्ष्य रखा था जिसकी प्राप्ति हेतु समय-समय पर आंदोलन करना बेहद अनिवार्य था।
सविनय अवज्ञा आंदोलन के परिणाम
सविनय अवज्ञा आंदोलन ने भारतीय समाज को कई प्रकार से प्रभावित किया था । सविनय अवज्ञा आंदोलन के परिणाम कुछ इस प्रकार हैं:- -
• सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारण ब्रिटिश सरकार की नीतियों का खंडन हुआ था जिससे उनकी कार्यप्रणाली बेहद बुरी तरह से प्रभावित हुई थी। सविनय अवज्ञा आंदोलन के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन की सामाजिक जड़ों को मजबूती मिली थी जिसके कारण भारत को आजादी मिली थी। इसके अलावा इस आंदोलन के कारण सामाजिक आधार का भी विस्तार हुआ जिसके कारण देश के विभिन्न वर्ग के लोगों में देश की आजादी के प्रति जागरूकता फैली।
• इस आंदोलन के द्वारा महात्मा गांधी ने भारतीय जनता के मानवाधिकारों के प्रति संघर्ष करने के नए मार्ग को प्रशस्त किया। इस आंदोलन के कारण ब्रिटिश सरकार को नशाबंदी एवं करबंदी जैसे कार्य करने पड़े जिससे भारतीय नागरिकों को लाभ मिला।
• सविनय अवज्ञा आंदोलन में देश की महिलाओं, किसानों, गरीबों एवं निम्न वर्गीय लोगों की बराबर भागीदारी को देखा गया जिससे महात्मा गांधी को भारत का एकीकरण करने में सहायता प्राप्त हुई। इसके अलावा इस आंदोलन ने नारी शक्ति को संचित करने का कार्य भी किया था जिससे उनका सार्वजनिक जीवन में प्रवेश हुआ एवं भारतीय मूल की महिलाओं को विशेष रुप से लाभ मिला।
• इस आंदोलन के माध्यम से समाज के विभिन्न वर्गों का राजनीतिकरण संभव हो सका । सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारण देश की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा था।
• माना जाता है कि सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारण ही ब्रिटिश सरकार को 1935 ई को भारत शासन अधिनियम पारित करना पड़ा था। यह सविनय अवज्ञा आंदोलन की प्रमुख उपलब्धि मानी जाती है।
• सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारण भारतीय नागरिकों ने अहिंसा के मार्ग को धारण किया जिससे भारतीयों में आत्म बल की वृद्धि देखी गई।
सविनय अवज्ञा आंदोलन का उद्देश्य क्या था
सविनय अवज्ञा आंदोलन का मुख्य उद्देश्य नमक कर एवं उपनिवेशी शासन का विरोध करना था। इस आंदोलन को दांडी मार्च, नमक सत्याग्रह एवं नमक मार्च के नाम से भी जाना जाता है। महात्मा गांधी इस आंदोलन के माध्यम से देश को ब्रिटिश सरकार से आजादी दिलाना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने 11 सूत्रीय निम्नलिखित कार्यों की सूची तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इर्विन को प्रेषित की थी:-
1. महात्मा गांधी सविनय अवज्ञा आंदोलन के माध्यम से विनियम की दर में कमी करना चाहते थे। जिसके लिए उन्होंने मांग रखी कि रूपये का विनिमय दर 1 सीलिंग 4 पेंस के बराबर कर दिया जाए।
2. सविनय अवज्ञा आंदोलन करने का मुख्य उद्देश्य क कर को पूर्णत: समाप्त करना था।
3. इस आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों द्वारा मदिरा की बिक्री पर रोक लगाई गई जिसका उद्देश्य संपूर्ण मदिरा की बिक्री पर रोक लगाना था।
4. महात्मा गांधी ने इस आंदोलन के द्वारा सेना के खर्च को लगभग आधा करने की मांग रखी। 5. सविनय अवज्ञा आंदोलन के माध्यम से भूमि कर का भी मुख्य रूप से विरोध किया गया था।
6. भारतीय आंदोलनकारियों की मांग थी कि भारत के सभी समुद्री तट भारतीय जहाजों के लिए सुरक्षित कर दिया जाए।
7. सविनय अवज्ञा आंदोलन का उद्देश्य विदेशी वस्त्रों के आयात पर रोक लगाना था जिससे भारत में स्वदेशी वस्त्रों का प्रसार एवं प्रचार किया जा सके।
8. महात्मा गांधी ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष यह मांग रखी कि सरकारी पद पर तैनात बड़े अधिकारियों का वेतन आधा कर दिया जाए जिससे आर्थिक मंदी की समस्या से जल्द से जल्द छुटकारा पाया जा सके।
9. सविनय अवज्ञा आंदोलन के माध्यम से भारतीय क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष सभी राजनीतिक कैदियों को आजाद करने एवं उनके ऊपर चल रहे सभी राजनीतिक मामलों को खत्म करने की मांग रखी।
10. इस आंदोलन के द्वारा भारतीय नागरिकों ने आत्मरक्षा हेतु हथियार रखने के लाइसेंस की भी मांग रखी।
11. महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के माध्यम से ब्रिटिश सरकार द्वारा संचालित गुप्तचर पुलिस को समाप्त करके उस पर जनता के नियंत्रण के अधिकार की मांग की।
सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रभाव
5 मार्च वर्ष 1931 में सविनय अवज्ञा आंदोलन की समाप्ति के बाद महात्मा गांधी ने 3 जनवरी 1932 को इस आंदोलन को पुनः आरंभ कर दिया था । सविनय अवज्ञा आंदोलन के माध्यम से देश के नागरिकों में नव चेतना का संचार हुआ था जिससे राष्ट्रीयता की भावना में वृद्धि हुई। इस आंदोलन ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को व्यापक रूप दिया था जिससे ब्रिटिश सरकार बेहद प्रभावित हुई। महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुए इस आंदोलन के कारण भारत के नागरिकों ने भारी मात्रा में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष किए। इसके अलावा सविनय अवज्ञा आंदोलन ने देश को कई अन्य प्रकार से भी प्रभावित किया था जो कुछ इस प्रकार हैं:
• सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारण भारतीय नागरिकों के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों पर अनुकूल प्रभाव पड़ा था। इसके कारण देश में स्वदेशी उत्पादों का प्रचार हुआ जिससे देश में आत्मनिर्भरता के कार्यक्रमों को बढ़ावा मिला। माना जाता है कि सविनय अवज्ञा आंदोलन एक जन आंदोलन था जिसमें देश के सभी वर्गों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
• इस आंदोलन के माध्यम से देश के नागरिकों में राष्ट्रीयता की भावना में वृद्धि हुई थी जिसके फलस्वरूप इस आंदोलन को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में जाना जाने लगा ।
• सविनय अवज्ञा आंदोलन का नेतृत्व महात्मा गांधी ने अहिंसा के बल पर किया था जिससे भारतीयों में हिंसा की शक्ति के प्रति विश्वास और अधिक दृढ़ हो गया।
• वर्ष 1930 में शुरू हुए इस आंदोलन के कारण भारतीय क्रांतिकारियों की गतिविधियां बेहद प्रभावित हुईं। इसके कारण भारतीय नागरिकों ने हिंसा की तुलना में अहिंसा के मार्ग को अपनाया जिसके कारण देश में हिंसात्मक गतिविधियों के स्तर में कमी हुई।
• भारत में चल रहे सविनय अवज्ञा आंदोलन को अन्य देशों ने नैतिक सहानुभूति प्रदान की। ब्रिटेन के उदारवादी तत्वों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन का समर्थन किया एवं भारत को जल्द से जल्द स्वतंत्रता प्रदान करने हेतु अपने देश की सरकार से आग्रह किया।
• सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारण देश की जनता महात्मा गांधी के प्रति विश्वास की नई चेतना जागृत हुई जिसके कारण उन्हें पूर्ण विश्वास हुआ कि भारत जल्द ही अंग्रेजों से स्वतंत्रता हासिल कर लेगा। इसके अलावा इस आंदोलन के माध्यम से लोगों के आत्मविश्वास को भी बढ़ावा मिला जिससे आजादी का संकल्प अटल हुआ।
• इस आंदोलन में भारतीय महिलाओं की भी एक अहम भूमिका रही जिससे भारतीय महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ।
• इस आंदोलन में भारतीय महिलाओं की भी एक अहम भूमिका रही जिससे भारतीय महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ।
• सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारण देश में कई कारखानों को बंद करके स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग को प्रोत्साहन दिया जाने लगा जिससे ब्रिटिश सरकार को भारी नुकसान का सामना करना पड़ा।
• इस आंदोलन के कारण संवैधानिक सुधार कार्यों को प्रोत्साहन मिला जिससे कुछ समय बाद ही भारत में 1935 का अधिनियम पारित किया गया।
Q.2 साइमन कमीशन क्या है
साइमन कमीशन की नियुक्ति ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में की थी। इस कमीशन में सात सदस्य थे, जो सभी ब्रिटेन की संसद के मनोनीत सदस्य थे। यही कारण था कि इसे 'श्वेत कमीशन' कहा गया। साइमन कमीशन की घोषणा 8 नवम्बर, 1927 ई. को की गई। कमीशन को इस बात की जाँच करनी थी कि क्या भारत इस लायक़ हो गया है कि यहाँ लोगों को संवैधानिक अधिकार दिये जाएँ। इस कमीशन में किसी भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया, जिस कारण इसका बहुत ही तीव्र विरोध हुआ।
स्थापना
1919 ई. के 'भारत सरकार अधिनियम' में यह व्यवस्था की गई थी, कि 10 वर्ष के उपरान्त एक ऐसा आयोग नियुक्त किया जायेगा, जो इस अधिनियम से हुई प्रगति की समीक्षा करेगा। भारतीय भी द्वैध शासन (प्रान्तों में) से ऊब चुके थे। वे इसमें परिवर्तन चाहते थे। अतः ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने समय से पूर्व ही सर जॉन साइमन के नेतृत्व में 7 सदस्यों वाले आयोग की स्थापना की, जिसमें सभी सदस्य ब्रिटेन की संसद के सदस्य थे।
विरोध
'साइमन कमीशन' के सभी सदस्य अंग्रेज़ होने के कारण कांग्रेसियों ने इसे 'श्वेत कमीशन' कहा। 8 नवम्बर, 1927 को इस आयोग की स्थापना की घोषणा हुई। इस आयोग का कार्य इस बात की सिफ़ारिश करना था कि, क्या भारत इस योग्य हो गया है कि, यहाँ के लोगों को और संवैधानिक अधिकार दिये जाएँ और यदि दिये जाएँ तो उसका स्वरूप क्या हो ? इस आयोग में किसी भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया, जिसके कारण भारत में इस आयोग का तीव्र विरोध हुआ । 'साइमन कमीशन' के विरोध के दूसरे कारण की व्याख्या करते हुए 1927 ई. के मद्रास कांग्रेस के अधिवेशन के अध्यक्ष श्री एम. एन. अंसारी ने कहा कि "भारतीय जनता का यह अधिकार है कि वह सभी सम्बद्ध गुटों का एक गोलमेज सम्मेलन या संसद का सम्मेलन बुला करके अपने संविधान का निर्णय कर सके। साइमन आयोग की नियुक्ति द्वारा निश्चय ही उस दावे को नकार दिया गया है।"
बहिष्कार का निर्णय
कांग्रेस के 1927 मद्रास अधिवेशन में 'साइमन आयोग' के पूर्ण बहिष्कार का निर्णय लिया गया। इस कमीशन से भारतीयों का आत्म- सम्मान भी आहत हुआ, जिससे तेज़ बहादुर सप्रू बहुत प्रभावित हुए। 3 फ़रवरी, 1928 ई. को जब आयोग के सदस्य बम्बई (वर्तमान मुम्बई) पहुँचे तो इसके ख़िलाफ़ एक अभूतपूर्व हड़ताल का आयोजन किया गया। काले झण्डे एवं 'साइमन वापस जाओ के नारे लगाये गए।
लाठी प्रहार
आयोग के विरोध के कारण लखनऊ में जवाहर लाल नेहरू, गोविन्द बल्लभ पंत आदि ने लाठियाँ खाईं। लाहौर में लाठी की गहरी चोट के कारण लाला लाजपत राय की 1928 ई. में मृत्यु हो गई। मरने से पहले लाला लाजपत राय का यह कथन ऐतिहासिक सिद्ध हुआ कि "मेरे ऊपर जो लाठियों के प्रहार किये गए हैं, वही एक दिन ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत (शवपेटी) की आख़िरी कील साबित होगा । " भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अतिरिक्त अन्य दलों ने भी 'साइमन कमीशन' का विरोध किया। मद्रास की जस्टिस पार्टी और पंजाब की यूनियनिस्ट पार्टी तथा मुस्लिम लीग के शफ़ी गुट को छोड़कर लगभग सभी प्रतिष्ठित राजनीतिक दलों ने कमीशन का बहिष्कार किया।
सिफ़ारिशें
'साइमन कमीशन ने 27 मई, 1930 ई. को अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसकी सिफ़ारिशें इस प्रकार हैं-
1. 1919 ई. के 'भारत सरकार अधिनियम के तहत लागू की गई द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त कर उत्तरदायी शासन की स्थाना हो।
2. भारत के लिए संघीय संविधान होना चाहिए। 3. केन्द्र में भारतीयों के लिए संघीय संविधान होना चाहिए।
4. केन्द्र में कोई भी उत्तरदायित्व न प्रदान किया जाए।
5. उच्च न्यायालय को भारत सरकार के नियंत्रण में कर दिया
जाए।
6. बर्मा (वर्तमान म्यांमार) को भारत से विलग किया जाए तथा उड़ीसा एवं सिंध को अलग प्रदेश का दर्जा दिया जाए। 7. प्रान्तीय विधानमण्डलों में सदस्यों की संख्या को बढ़ाया जाए।
8. गवर्नर व गवर्नर-जनरल अल्पसंख्यक जातियों के हितों के प्रति विशेष ध्यान रखें।
9. प्रत्येक 10 वर्ष बाद पुनरीक्षण के लिए एक संविधान आयोग की नियुक्ति की व्यवस्था को समाप्त कर दिया जाए तथा भारत के लिए एक ऐसा लचीला संविधान बनाया जाए जो स्वयं से विकसित हो ।
आलोचना
'साइमन कमीशन की नियुक्ति से भारतीयों दलों में व्याप्त आपसी फूट एवं मतभेद की स्थिति से उबरने एवं राष्ट्रीय आन्दोलन को उत्साहित करने में सहयोग मिला। यद्यपि इस आयोग की भारत में कड़ी आलोचना की गई, फिर भी उसकी अनेक बातों को 1935 ई. के 'भारत सरकार अधिनियम' में स्वीकार किया गया। सर शिवस्वामी अय्यर ने आयोग की सिफ़ारिशों को 'रद्दी की टोकरी में फेंकने के लायक़ बताया।'
Q. 3 गांधी समझौता को विस्तारपूर्वक समझाओ
गांधी-इरविन समझौता
नमक सत्याग्रह अपने चरम पर था, सरकार का जुल्म भी । भारतीय राष्ट्रवादियों पर अब तक हुआ यह सबसे निर्दयतापूर्ण अत्याचार उस वायसराय लार्ड इरविन के शासनकाल में रहा था, जिसे यह काम पसन्द नहीं था। नरम दल के नेता असमंजस की स्थिति में थे। वह सत्याग्रह में शरीक़ हो नहीं सकते थे। इसलिए सरकार पर दवाब बनाने लगे कि शान्ति की दिशा में सरकार कोई कदम उठाए। सरकार को भी सत्याग्रह के कारण काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था। अंग्रेज अधिकारी और व्यापारी- वर्ग दमन चक्र और भी कठोरता से चलाना चाहते थे। सत्याग्रहियों के ऊपर बढ़ते जुल्म के कारण संसार का लोकमत भी सरकार के विरोध में तेज़ी से बढ़ रहा था। प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड शान्ति स्थापित करना चाहते थे, बशर्ते कि मजदूर सरकार की स्थिति को कमजोर बनाये बिना ऐसा हो सके। इस परिप्रेक्ष्य में सरकार द्वारा यह निश्चय किया गया कि अंग्रेज़ शासक भारत की आज़ादी की मांग पर समझौता के लिए लंदन में गोल मेज सम्मेलन करेंगे।
गांधीजी और कांग्रेस प्रतिनिधियों की उपस्थिति
प्रधानमंत्री गोलमेज सम्मेलन सफल बनाने को उत्सुक थे, लेकिन उन्हें यह भी पता था कि गांधीजी और कांग्रेस प्रतिनिधियों की उपस्थिति के बिना इस सम्मेलन का कुछ खास असर नहीं होगा। रैमजे मैकडोनाल्ड ने 19 जनवरी, 1931 को गोलमेज सम्मेलन के अन्तिम अधिवेशन में, अपने विदाई भाषण में यह आशा प्रकट की कि कांग्रेस दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी। वाइसराय इरविन ने उनके अभिप्राय को समझ कर गांधीजी और कांग्रेस कार्यकारिणी के सभी सदस्यों को तुरन्त और बिना किसी शर्त के छोड़ने का हुक्म दे दिया। नौ महीने तक जेल में रखने के बाद स्वाधीनता दिवस के ठीक एक दिन पहले 25 जनवरी, 1931 को गाँधी जी को जेल से रिहा किया गया। गांधीजी के साथ जवाहरलाल नेहरू, मोतीलाल नेहरू और अन्य बीस से अधिक कार्यकारी समिति के दूसरे सदस्यों को भी रिहा कर दिया गया था। इस सद्भावना-प्रदर्शन की यह प्रतिक्रिया हुई कि गांधीजी वाइसराय से मिलने को राजी हो गए।
गांधी-इरविन वार्ता
गोलमेज सम्मेलन से लौटे भारतीय दल द्वारा यह सुझाव दिया गया कि गांधीजी वायसराय को पत्र लिखकर मुलाक़ात का समय मांगें। 14 फरवरी को गांधीजी ने वायसराय को पत्र लिखा और भेंट करने के लिए समय मांगा। लार्ड इरविन सहमत हो गया। सविनय अवज्ञा आंदोलन चल ही रहा था। चूंकि सरकार से बातचीत होने जा रही थी, तो उसकी उग्रता थोड़ी कम हो गई थी। लॉर्ड इरविन ने समय दिया और गांधीजी यह कहकर दिल्ली के लिए रवाना हुए कि अगर अस्थायी समझौते के लायक कोई गंभीर बातचीत हुई, तो कार्यसमिति के सदस्यों को बुला लेंगे। 17 फरवरी को गांधी-इरविन मिले। इस मिलन का ऐतिहासिक महत्त्व था। दोनों बराबरी के तौर पर मिले, न कि शासक और प्रजा की तरह। राष्ट्रीय आंदोलन ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के माध्यम से जो संघर्ष किया था वह रंग दिखा रहा था। इस दिन के बाद से कांग्रेस संगठन की प्रगति और मज़बूती अब स्पष्ट तौर पर दिखने लगी थी ।
इस मिलन का ऐतिहासिक महत्त्व था। दोनों बराबरी के तौर पर मिले, न कि शासक और प्रजा की तरह। राष्ट्रीय आंदोलन ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के माध्यम से जो संघर्ष किया था वह रंग दिखा रहा था। इस दिन के बाद से कांग्रेस संगठन की प्रगति और मज़बूती अब स्पष्ट तौर पर दिखने लगी थी। गांधीजी की छह शर्तें कुछ दिनों बाद कार्यसमिति के सदस्यों को दिल्ली बुला लिया गया। नेहरू जी और अन्य लोग वहां तीन हफ़्ते रहे। शांति वार्ता के लिए गांधीजी की छह शर्तें थीं, आम रिहाई, दमन पर तत्काल विराम, सभी जब्त संपत्तियों की वापसी, राजनीतिक आधार पर सज़ा पाए सभी सरकारी कर्मचारियों की बहाली, नमक बनाने तथा शराब व विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर धरना देने की आज़ादी और पुलिस की ज्यादतियों की जांच। पहली वार्ता 17 फरवरी को हुई जो चार घंटे चली। कुछ दिनों तक रोज़ वार्ताओं का दौर चलता रहा, फिर एक सप्ताह तक वार्ताओं को स्थगित कर दिया गया। 27 फरवरी को फिर गांधीजी को बुलाया गया। कई दिनों तक वार्ता के कई दौर और कई लंबी बैठ हुईं। 1 मार्च को परिस्थितियां बहुत ही निराशाजनक हो गईं। 2 मार्च की वार्ता में कुछ सहमतियां बनीं। 3 मार्च को गांधीजी नमक पर रियायत पाने में सफल हुए। लेकिन बारडोली के किसानों की ज़मीन की वापसी को लेकर समस्या खड़ी हो गई। धरने को लेकर एक फार्मूले पर सहमति बनी।
सविनय अवज्ञा आंदोलन एकमात्र शस्त्र
राजनीतिक कैदियों को छोड़ने का वादा किया गया। गांधीजी इस बात पर सहमत हुए कि गोलमेज सम्मेलन में होने वाली भविष्य की वार्ता भारत की संवैधानिक सरकार की योजना को ध्यान में रखते हुए होनी चाहिए। जिस बात के लिए सबसे अधिक आपत्ति थी वह यह कि सविनय अवज्ञा आंदोलन को रोक दिया जाए। गांधीजी हमेशा यह स्पष्ट रूप से कहते आए थे कि सविनय अवज्ञा आंदोलन सदा के लिए बंद या छोड़ा नहीं जा सकता। उनके अनुसार जनता के हाथ में यही तो एकमात्र शस्त्र है। हां स्थगित करने के लिए वे ज़रूर तैयार हो गए थे। लॉर्ड इरविन को स्थगित करने शब्द पर आपत्ति थी। गांधी जी इसे हटाने के लिए तैयार नहीं थे। अंत में 'सिलसिला बंद कर देना' शब्द का प्रयोग हुआ। यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि सविनय अवज्ञा आंदोलन को अंतिम रूप से वापस नहीं लिया जा सकता क्योंकि यह जनता के संघर्ष का एकमात्र हथियार है।
कांग्रेस की कार्यकारी समिति के सदस्यों में असंतुष्टी
कांग्रेस की कार्यकारी समिति में जब इसकी चर्चा हुई, तो सदस्य असंतुष्ट दिखे। पटेल ने ज़ब्त संपत्ति पर घोषित किए गए फार्मूले पर आपत्ति जताई। नेहरू पूर्ण स्वतंत्रता पर बिना किसी ठोस चर्चा के वार्ता की स्वीकृति पर रोष प्रकट किया। सदस्यों ने कहा वार्ता तोड़ देनी चाहिए क्योंकि वायसराय से भारतीयों के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता का आश्वासन नहीं मिला था, केवल वार्ताओं का आश्वासन मिला था। गांधीजी ने समिति के एक-एक सदस्य से लगातार चर्चा की। उन्होंने प्रश्न उठाया, आखिर किस सवाल पर उन्हें वार्ता तोड़ देनी चाहिए - क़ैदियों की रिहाई के मुद्दे पर ? भूमि ज़ब्ती के मुद्दे पर ? धरने के मुद्दे पर? या और किसी मुद्दे पर ? अनिच्छापूर्वक समिति ने समझौते को स्वीकार कर लिया। समझौते पर हस्ताक्षर 5 मार्च को दोपहर में वायसराय भवन में इरविन और गांधीजी द्वारा समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। इसे गांधी-इरविन समझौता या दिल्ली पैक्ट के नाम से जाना जाता है। इरविन ने कहा, हमें इस मौक़े पर चाय पीकर एक दूसरे को बधाई देनी चाहिए। गांधीजी ने अपनी शाल से एक काग़ज़ की थैली निकालते हुए कहा, शुक्रिया, मैं नमक की कुछ मात्रा अपनी चाय में मिलाना चाहूंगा ताकि हमें प्रसिद्ध बोस्टन टी पार्टी का स्मरण हो जाए। इस पर दोनों हंस पड़े। समझौते के अनुसार सरकार ने सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करने का आश्वासन दिया था। आन्दोलन के दौरान ज़ब्त संपत्ति को लौटाने, दमनचक्र बंद करने, सभी अध्यादेश और मुक़दमे वापस लेने पर सरकार ने सहमति जताई थी। भारतीयों को नमक बनाने की छूट मिल गयी ।
भारत के पूर्ण स्वराज्य का मार्ग
आन्दोलन के दौरान जिन लोगों ने नौकरी से त्यागपत्र दिया था उन्हें फिर से सरकारी नौकरी में वापस लेने की व्यवस्था की गई। गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस लेने, बहिष्कार की नीति त्यागने और द्वितीय गोलमेज सम्मलेन में भाग लेने पर सहमती दी। समझौता भारत के गजट में गृह विभाग की एक विज्ञप्ति के रूप में प्रकाशित हुआ । विज्ञप्ति में कहा गया था, सविनय अवज्ञा प्रभावी रूप से बंद किया जाएगा और इसके उत्तर में सरकार की तरफ़ से भी यथोचित क़दम उठाया जाएगा। कांग्रेस कार्यकारी समिति ने समझौते की शर्तों का समर्थन करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया, समिति आशा करती है कि राष्ट्र समझौते की शर्तों का पालन करेगा क्योंकि यह कांग्रेस की विभिन्न गतिविधियों और इस मत से मेल खाती है कि कांग्रेस की तरफ से किए वादों के पूरे अनुपालन से ही भारत के पूर्ण स्वराज्य का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा।
गांधी इरविन समझौते के बाद प्रतिक्रया, विश्लेषण
गांधी-इरविन करार से कोई प्रसन्न नहीं था । काँग्रेस की स्वतंत्रता का प्रस्ताव और 26 जनवरी का वायदा, दोनों की समझौते की बातचीत के दौरान उपेक्षा की गई। नेहरू और वामपंथी नेता इससे दुखी हुए। गांधीजी के कुछ साथियों की राय थी कि लार्ड इरविन ने गांधीजी को वाइसराय भवन की • भूल-भुलैया में फंसा लिया और समझौते को उन्होंने वाइसराय की निरी कपट भरी चाल बताया। कांग्रेस के सदस्यों को लगा कि सरकार ने कुछ नहीं दिया और सत्याग्रह भी स्थगित कर दिया गया। उन्हें लगा कि गांधीजी सरकार से किसी भी महत्त्वपूर्ण मांग को नहीं मनवा सके। युवा वर्ग और देश के एक विशाल समूह का यह कहना था कि वे भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी को कारावास में नहीं बदलवा सके। 23 मार्च को इन तीनों वीरों को जेल में फाँसी पर लटका दिया गया। देश में इसका तीव्र विरोध हुआ ।
सरकारी अधिकारी चाहते थे समझौता सफल न हो
देश के सरकारी अधिकारी भी चाहते थे कि समझौता सफल न हो । भारत में अंग्रेज अधिकारियों और इंग्लैंड के टोरी अथवा अनुदार दल के राजनीतिज्ञों को, एक ऐसी पार्टी से समझौते की बात से आघात पहुंचा, जो स्पष्ट घोषणा कर चुकी थी कि उसका उद्देश्य अंग्रेजी राज को समाप्त करना है। सरकारी अधिकारी शासन की ताकत और क़ानून के ज़ोर से लोगों पर जुल्म ढा रहे थे। बहुत से कांग्रेसी नेता, खासकर वे जिनका झुकाव वामपंथ की ओर था, इस समझौते के ख़िलाफ़ थे। उनका मानना था कि सरकार ने आंदोलनकारियों की कोई प्रमुख मांग नहीं मानी थी। सुभाषचन्द्र बोस ने वियना से एक विज्ञप्ति जारी करके सिविल नाफरमानी के स्थगन की भर्त्सना की और इसे गांधीजी के राजनीतिक नेतृत्व तथा तरीक़ों की विफलता बताया।
राजनैतिक बंदियों के क्षमादान का प्रश्न
असहयोग आन्दोलन के क़ैदियों को छोड़ने की बात तो कही गई थी, किंतु इस समझौते में नज़रबंद या सजा भुगत रहे बंदियों की रिहाई का कोई उल्लेख नहीं था । उन राजनैतिक बंदियों के क्षमादान का प्रश्न ज़रूर उठाया गया था, जिन्हें अध्यादेशों के अंतर्गत हिंसक कार्रवाइयों के लिए दण्डित किया गया था । वस्तुत: गांधीजी ने उन अध्यादेशों को वापस लेने की पैरवी की थी। लोगों को ऐसा प्रतीत होता था कि भगतसिंह और उनके सह कैदियों को बचाने के लिए विशेष प्रयत्न नहीं किए गए। भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु के मृत्युदंड की सज़ा ख़त्म कर देने के मसाले पर इरविन ने गांधीजी के आग्रह को न केवल दृढतापूर्वाक अस्वीकार कर दिया बल्कि यह भी कहा कि वह उसे स्थगित करने को भी तैयार नहीं है। बंगाल में भी हज़ारों लोग अभी भी जेल में बंद थे। गढ़वाली सैनिकों, जिन्होंने पेशावर में निहत्थे सत्याग्रहियों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया था, की रिहाई का भी कोई उल्लेख नहीं था।
किसानों में बढ़ा असंतोष
आंदोलन के सिलसिले में नीलाम की गई ज़मीनों को उनके वास्तविक स्वामियों को लौटाने की बात भी इस समझौते में नहीं थी। ग्रामीण इलाक़ों में किसानों का असंतोष बढ़ रहा था । क़ीमतों की गिरावट अपने रिकॉर्ड स्तर पर थी। मालगुज़ारी, लगान और ऋणों का बोझ असह्य होने लगा था। उत्तर प्रदेश में काश्तकारों की ज़मीन ज़ब्त कर ली गई थी। बेरहमी से बकाया लगान वसूला जाने लगा। गांधीजी ने कृषकों की समस्या के बारे में वायसराय को लिखा लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। जो नाममात्र रियायतें दी गई थीं, वह भी तब प्रभावहीन हो गई जब बातचीत के बाद गांधीजी ने पुलिस ज्यादतियों की जांच कराने और किसी तीसरे को बेच दी गई ज़मीनों की वापसी की मांग वापस ले ली। नौकरी से बर्खास्त किए गए सरकारी कर्मचारियों की पुनः नौकरी पर बहाल करने की बात भी इस समझौते में नहीं थी। समझौते में औपनिवेशिक स्वराज्य का भी कोई आश्वासन नहीं था।
व्यापारी समूह के दवाब की भूमिका
इस समझौते को जहां कुछ इतिहासकारों ने उदारवादी नेताओं के दबाव के संदर्भ में व्याख्या की है तो वहीं कुछ विद्वानों ने बंबई के गवर्नर द्वारा वायसराय को दी गई इस रिपोर्ट के आधार पर कि "यदि गांधीजी समझदारी का रुख नहीं अपनाते, तो गांधीजी के अनेक अनुयायी व्यापारी उनसे नाता तोड़ने की बात सोच रहे थे", व्यापारी समूह के दवाब की भूमिका को प्रमुख कारण माना है। सुमित सरकार के शब्दों में कहें तो, "गाँधी-इरविन समझौते को केवल नकारात्मक दृष्टि से देखना भी एक अपेक्षाकृत जटिल वास्तविकता का अति सरलीकरण होगा।... इस समझौते से राष्ट्र को होनेवाली उपलब्धि चाहे जितनी भी नगण्य रही हो, वायसराय को इस बात के लिए बाध्य होना कि वह राष्ट्रीय नेता से नम्रता और समानता के एक नितांत नए आधार पर मिले।" सरकार ने गांधीजी से समझौता इसलिए किया कि उसे लगता था कि इससे कांग्रेस कमज़ोर होगी। लेकिन हुआ इसके ठीक उलटा । कांग्रेस की प्रतिष्ठा और बढ़ गई।
समझौते ने गांधीजी और कांग्रेस को सरकार के समकक्ष ला दिया। विंस्टन चर्चिल ने खुले आम कहा था कि इस घिनौने और अपमानजनक तमाशे से उन्हें नफरत हो गयी कि कभी जो इंग्लैंड के इनर टेम्पुल का बैरिस्टर था, वही अब राजद्रोही फकीर बन कर सम्राट के प्रतिनिधि से बराबरी की हैसियत से सन्धि-वार्ता करने के लिए वाइसराय भवन की सीढ़ियों पर अर्धनग्न स्थिति में लम्बे कदम भरता हुआ जा रहा था। वायसराय के साथ बराबरी में बैठकर एक सन्धि करने के कारण गांधीजी की वरिष्ठता और बढ़ गई थी। उसी वर्ष बाद में लन्दन में उन्हें सम्राट जॉर्ज पंचम के महल बकिंघम पैलेस में आयोजित स्वागत समारोह में शामिल होने का निमंत्रण मिला।
यह समझौता महत्वपूर्ण था
समझौते की शर्तों के तहत जब कांग्रेसी कार्यकर्ता जेल छूटकर अपने-अपने गाँव या शहर गए तो उनका तेवर विजेताओं वाला था और वे उत्साह से भरे - पूरे थे। कांग्रेस को एक नई ऊर्जा मिल गई थी और लोग पूरे जोश से स्वाधीनता के संघर्ष के लिए तैयार थे। भारत को स्वतन्त्रता भले ही सोलह वर्षों के बाद मिली हो, लेकिन उसकी बुनियाद गांधी-इरविन वार्ताओं में निहित थी, और समझौता उन्हीं वार्ताओं की परिणति था। गांधीजी के आत्मकथा लेखक फिशर ने सही ही कहा है कि 'इस समझौते की शर्तें इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं थीं, जितना कि स्वयं यह समझौता था।' यह बराबरी का समझौता था। यह स्वतन्त्रता की अनकही स्वीकृति का परवाना था ।
सुमित सरकार के अनुसार, "गांधीजी के रवैये में परिवर्तन की इस ऐतिहासिक पहेली को केवल उदारवादी नेताओं के दबाव के सन्दर्भ में ही नहीं समझा जा सकता।
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*इस पोस्ट पर अभी काम चल रहा है जैसे ही हैंड रिटन नोट्स तैयार होंगे उसके बाद पीडीएफ अपलोड कर दी जाएगी*
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