class 11th Political Science chapter 14 सामाजिक न्याय full solution

sachin ahirwar
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class 11th Political Science chapter 14 सामाजिक न्याय full solution//कक्षा 11वी राजनीति विज्ञान पाठ 14 सामाजिक न्याय पूरा हल

NCERT Class 11th Political Science Chapter 14 Social Justice Solution 

Class 11th Political Science Chapter 14 NCERT Textbook Question Solved

 अध्याय 14

सामाजिक न्याय


★महत्वपूर्ण बिंदु


● न्याय का अंग्रेजी शब्द 'जस्टिस' लेटिन भाषी' जस शब्द से बना है, जिसका तात्पर्य बंधन अथवा बांधना है।

● प्रत्येक व्यक्ति को उसका उचित स्थान देना एवं समाज में सही को बढ़ावा देना तथा गलत को दंडित करना ही न्याय कहलाता है।

● यूनान में ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में प्लेटो ने अपनी पुस्तक 'द रिपब्लिक' में न्याय का उल्लेख किया था।

● न्याय का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति के बीच अधिकारों का नियमन करना है।

● आधुनिक विचारक 'जान राल्स' ने सामाजिक न्याय की स्थापना हेतु 'संसाधनों के न्याय उचित वितरण का सिद्धांत 'प्रतिपादित किया।

● समाज में सामाजिक न्याय स्थापित करने हेतु जरूरी है कि कानून तथा नीतियों सभी लोगों पर निष्पक्षतापूर्वक लागू की जाएं।

● लोकतांत्रिक राज्यों में मुक्त बाजार व्यवस्था को भी न्याय पूर्ण माना जाता है।

● मुक्त बाजार व्यवस्था अनुयायियों का स्पष्ट अभिमत है कि मुक्त बाजार उचित न्याय पूर्ण समाज का आधार है।




प्रश्न 1. हर व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का क्या मतलब है? हर किसी को उसका प्राप्य देने का मतलब समय के साथ साथ कैसे बदला?

उत्तर- समाज में विभिन्न वर्गों के लोग निवास करते हैं जिनकी क्षमताएं तथा योग्यताएं अलग-अलग होती हैं। समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यता के आधार पर कुछ प्राप्ति की कामना तथा आवश्यकता है। इसी जरूरत तथा लाभ को उस व्यक्ति का 'प्राप्य' कहते हैं । इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को उसका प्राय अर्थात उचित अथवा वाजिब हक देने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को उसकी योग्यता, क्षमता तथा जरूरतों के अनुरूप जो हक एवं लाभ मिलने चाहिए वह उनको दिए जाएं। जब प्रत्येक व्यक्ति को उसका उचित हक मिलने लगेगा तभी न्याय पूर्ण समाज की स्थापना होगी। 


समाज सदैव परिवर्तनशील है अतः उसके निवासियों की आवश्यकताएं भी बदलती रहती हैं। एक समय पर जो चीजें पर्याप्त तथा जो बातें मान्य लगती हैं आगे आने वाले समय में वही चीजें कम तथा बातें अमान्य हो जाती हैं। यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति को मिलने वाले उचित हक पर आया 'प्राप्य' का अभिप्राय भी समय के साथ साथ बदलता चलता जाता है। जैसे-जैसे समाज में विकास की प्रक्रिया तीव्र हुई वैसे-वैसे समाज में असंतुलन एवं असमानता में भी वृद्धि होती चली गई। अतः इस बदलाव की प्रक्रिया में प्रत्येक व्यक्ति को उसके प्राप्य देने का अभिप्राय स्वाभाविक रूप से परिवर्तन होता रहता है ।


प्रश्न 2. क्या 'विशेष जरूरतों का सिद्धांत','सभी के साथ समान बर्ताव' के सिद्धांत के विरुद्ध है?

उत्तर- हालांकि विशेष जरूरतों का सिद्धांत तथा सभी के साथ समान बर्ताव का सिद्धांत परस्पर एक-दूसरे के विरोधी प्रतीत होते हैं, लेकिन वास्तविक रूप से यह परस्पर विरोधी ना होकर एक -दूसरे के पूरक हैं। विशेष जरूरत का सिद्धांत कुछ विषम परिस्थितियों में ही लागू किया जाता है, जिससे समाज के अति पिछड़े एवं निचले वर्गों को कुछ राहत पहुंचाई जा सके। समाज में लोगों की स्थितियों और उनकी आवश्यकताएं अलग-अलग हैं, जिसकी वजह से न्याय का कोई एक सिद्धांत सभी पर लागू नहीं हो सकता है। इस आधार पर न्याय के इन प्रथक-प्रथक सिद्धांतों को विरोधी नहीं माना जा सकता। वास्तविक रुप से न्याय के उक्त दोनों ही सिद्धांत समानता के प्रबल पक्षधर हैं, जो प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर उपलब्ध कराना चाहते हैं। अतः न्याय के उक्त दोनों सिद्धांत परस्पर विरोधी नहीं बल्कि पूरक ही हैं।


प्रश्न 3. निष्पक्ष और न्यायपूर्ण वितरण को युक्तिसंगत आधार पर सही ठहराया जा सकता है। रॉल्स के इस वर्क को आगे बढ़ाने में 'अज्ञानता के आवरण 'के विचार का उपयोग किस प्रकार किया?

उत्तर- जॉन रॉल्स के निष्पक्ष एवं न्याय पूर्ण वितरण को युक्तिसंगत आधार पर उचित ठहराते हुए 'अज्ञानता के आवरण ' के विचार का उपयोग किया। उन्होंने अपने विचारों द्वारा स्पष्ट किया कि यदि समाज में विभिन्न वर्गों एवं स्थितियों के लोग अपनी जन्मजात पहचान तथा स्थिति को भूलकर समाज के हित में चिंतन करें तथा सही के कल्याण के साथ-साथ अपनी स्वयं की भलाई को भी जोड़ लें, तो समाज में संसाधनों का निष्पक्ष एवं न्याय पूर्ण वितरण सफलतापूर्वक हो जाएगा। उक्त स्थिति को रॉल्स मैं अज्ञानता का आवरण की उपमा दी है

रॉयल्स मानता है कि 'अज्ञानता के आवरण ' वाली स्थिति का लक्षण है कि इसमें लोगों के सामान्यतया विवेकशील प्राणी बने रहने की उम्मीद बनी रहती है। अज्ञानता का आवरण एक ऐसा सामाजिक ढांचा उपलब्ध करा सकता है जिसमें संशोधनों का निष्पादन एवं न्याय पूर्ण वितरण युक्तिसंगत आधार पर उचित ठहराया जा सकता है। रॉयल्स की स्पष्ट मान्यता है कि हमारे लिए अज्ञानता का काल्पनिक आवरण उड़ना उचित कानूनी एवं नीतियों की प्रणाली तक पहुंचने का प्रथम कदम है।

प्रश्न 4. आमतौर पर एक स्वस्थ एवं उत्पादक जीवन जीने के लिए व्यक्ति की न्यूनतम बुनियादी जरूरतें क्या मानी गई हैं? इस न्यूनतम को सुनिश्चित करने में सरकार की क्या जिम्मेदारी है?

उत्तर- व्यक्ति की न्यूनतम आधारभूत आवश्यकताओं में स्वस्थ रहने हेतु आवश्यक पोषक तत्व, आवाज पीने का शुद्ध पानी, शिक्षा, रोजगार तथा उचित परिश्रमिक इत्यादि सम्मिलित हैं। उक्त न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करने में सरकार द्वारा महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाहन किया जा सकता है। शासन अनेक प्रकार के कानूनों को निर्मित करके ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न कर सकती है, जिसमें सभी लोगों की मूलभूत न्यूनतम जरूरतें पूर्ण की जा सके । उदाहरणार्थ केंद्र सरकार द्वारा लागू महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जिसे "मनरेगा" के नाम से भी जाना जाता है, जो शासन के उत्तरदायित्व को प्रमाणित करती है।



◆अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर◆



★अति लघु उत्तरीय प्रश्न★



प्रश्न 1. सामाजिक न्याय का अर्थ लिखिए।

उत्तर- सामाजिक न्याय का अर्थ सामाजिक समानता ओं को समाप्त करके सामाजिक क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करने से है।

प्रश्न 2. सामाजिक न्याय के कोई दो प्रकार लिखिए।

उत्तर- (1) अवसरों की समानता, तथा (2) कमजोर वर्गों हेतु विशेषाधिकार।

प्रश्न 3 भारतीय संविधान में उल्लेखित सामाजिक न्याय को दर्शाने वाले दो प्रावधान लिखिए।

उत्तर (1) मौलिक अधिकार तथा (2) राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत।

प्रश्न 4. आरक्षण द्वारा सामाजिक न्याय मिलने की दो कारण लिखिए।

उत्तर -(1) आरक्षण से कमजोर वर्गों के लोगों का सामाजिक स्तर बढ़ता है तथा 

(2) आरक्षण की वजह से कमजोर वर्गों के लोगों को रोजगार के अवसर प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 5. लोकतंत्र में न्याय के महत्व के 2 बिंदु संक्षेप में लिखिए।

उत्तर- (1) न्याय यहां व्यक्तिगत विकास में सहायक है वहीं यह समाज के विकास में भी सहायक होता है। (2) न्याय से समाज के विभिन्न वर्गों में एकता स्थापित होती है जो राष्ट्रीय एकता हेतु परमावश्यक होती है।


★लघु उत्तरीय प्रश्न★


प्रश्न 1. सामाजिक न्याय का अर्थ लिखिए।

उत्तर- सामाजिक न्याय समानता पर आधारित है। इसमें इस बात पर बल दिया जाता है कि समाज में रहने वाले सभी व्यक्तियों के साथ एक समान व्यवहार होना चाहिए। धर्म, जाति, भाषा तथा संप्रदाय इत्यादि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। सामाजिक न्याय की मानता है कि जन्म स्थान, संपत्ति, धर्म, जाति अथवा लिंग इत्यादि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाए तथा न ही किसी वर्ग विशेष को समाज में कोई विशेष स्थान अथवा सुविधा दी जाए । सामाजिक न्याय का लक्ष्य वर्ग विहीन समतावादी समाज का निर्माण करना है।

प्रश्न 2. प्राचीन भारत में सामाजिक न्याय की स्थिति को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- प्राचीन काल में भारत मैं सामाजिक न्याय की जड़ें काफी गहरी थी तथा शासन व्यवस्था का आधार न्याय ही होता था। सत, अहिंसा, प्रेम, शांति एवं सेवा इत्यादि मानवीय मूल्य न्याय के आधार स्तंभ थे । न्याय की संपूर्ण प्रक्रिया इन्हीं मानवीय मूल्यों के चारो तरफ घूमती थी। इस काल में न्याय ही एक तरह से कानून था। मध्यकाल आते-आते भारत में न्याय की प्रदर्शना में अंतर आया तथा इस युग में न्याय को कानून द्वारा संबल प्रदान किया गया । मध्य काल के दौरान भारत में सामाजिक न्याय की स्थिति काफी कमजोर हो गई।

प्रश्न 3 भारत में सामाजिक न्याय की क्या स्थिति है?

उत्तर- भारत की लंबी गुलामी के पश्चात आजादी मिली। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों ने आजादी के साथ-साथ भारत में पुनः सामाजिक न्याय की स्थापना पर जोर दिया। इसी लक्ष्य को दृष्टिगत रखते हुए स्वतंत्रता के पश्चात भारत में सामाजिक न्याय की दशा में अनेक प्रयास किए गए। हमारे संविधान निर्माताओं ने सामाजिक न्याय की स्थापना को संविधान की प्रस्तावना में स्थान दिया और उसे सरकार के प्रमुख लक्ष्य के रूप में घोषित किया। था ना कि भारतीय संविधान में जाति, धर्म, रंग तथा वर्ण इत्यादि के आधार पर भेदभाव का अंत कर दिया गया, लेकिन फिर भी सामाजिक न्याय की स्थिति नहीं बन पाई । वर्तमान में  भी जाति , धर्म , संप्रदाय, लिंग, रंग तथा वर्ण इत्यादि का भेदभाव कायम है। समाज में ऊंच-नीच की विशाल खाई आज भी विद्यमान है और देश में सामाजिक न्याय की स्थापना एक सपना बनकर रह गई है।



प्रश्न 4. सामाजिक न्याय की आवश्यकता का वर्णन कीजिए।

अथवा

सामाजिक न्याय के महत्व को समझाइए।

उत्तर- सामाजिक न्याय की आवश्यकता को निम्न बिंदुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) समाज का असमानता से ग्रस्त होना- दुर्भाग्यवश सहयोग पर आधारित होने के बावजूद समाज समानता से ग्रसित हो रहा है। सामाजिक समानता की वजह से सामाजिक न्याय का उदय हुआ। अभावग्रस्त वर्ग विकास प्रक्रिया में निरंतर बढ़ता चला गया पूर्णब्रह्म ऐसी परिस्थिति में परम आवश्यक था कि इस पिछड़े वर्ग को समाज एवं राज्य की मुख्यधारा में लाया जाए। इसके लिए सामाजिक न्याय की आवश्यकता पड़ी।

(2) सामाजिक विकास हेतु जरूरी- समाज का स्तर विकास तभी संभव हो सकता है। जब समस्त सामाजिक वर्गों का संतुलित विकास हो। यह कार्य सिर्फ सामाजिक न्याय को क्रियान्वित करके ही किया जा सकता है।

(3) लोक कल्याणकारी राज्य के आदर्शों के अनुकूल- लोक कल्याणकारी राज्य नासिर पर समाज के समस्त वर्गों के कल्याण का प्रबल हिमायती है, बल्कि यह सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों हेतु कुछ विशेष प्रावधान भी करना चाहता है। वर्तमान में विश्व के लगभग सभी राज्य लोक कल्याणकारी हैं। अंत सामाजिक न्याय लोक कल्याणकारी राज्य के आदर्शों के अनुकूल कहा जा सकता है

(4) विषमता के अंत हेतु आवश्यक- किसी भी समाज का सबसे बड़ा दोष क्षमता है। क्योंकि समाज न्याय एवं समाजवादी धारणा है अर्थात सामाजिक न्याय का प्राण तत्व समानता है। यदि सामाजिक विषमता का अंत करना है, तो इसका एकमात्र समाधान यही है कि किसी भी कारण से समाज के सामान्य वर्ग के पीछे के लोगों को विशेष सुविधा प्रदत्ता की जाएं।



★दीर्घ उत्तरीय प्रश्न★


प्रश्न 1. सामाजिक न्याय की प्रमुख विशेषताएं लिखिए।

उत्तर- सामाजिक न्याय की प्रमुख विशेषताएं निम्न प्रकार हैं-

(1) सामाजिक न्याय में व्यक्ति तथा व्यक्ति के मध्य कोई अंतर नहीं किया जाता है, और सभी को समान रूप से आत्मा विकास के अवसर उपलब्ध कराए जाते हैं। राज्य के सभी नागरिक कानूनों के समक्ष एक समान हैं तथा उन्हें विधि का समान संरक्षण प्राप्त है।

(2) सामाजिक न्याय की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह भी है इसमें व्यक्ति द्वारा व्यक्ति के शोषण का अंत कर दिया जाता है।

(3) यह सामाजिक न्याय की की विशेषता है कि समाज के कमजोर वर्गों के विकास के लिए राज्य द्वारा विशेष प्रयास किए जाते हैं जिससे कि वे समाज की मुख्यधारा में सम्मिलित हो पाते हैं। इस प्रयोजन हेतु राज्य द्वारा कमजोर वर्गों के हित में आरक्षण इत्यादि जैसे विशेष प्रावधान किए जाते हैं।

(4) अल्पसंख्यकों के हितों का अधिकाधिक संरक्षण की सामाजिक न्याय की ही विशेषता है। अल्पसंख्यकों को यह अधिकार दिया जाता है कि वे अपनी भाषा लिपि तथा संस्कृति की रक्षा कर सकें।

(5) सामाजिक न्याय का आदर्श मानवीय कल्याण के आदर्श से अलग नहीं होता । राज्य कार्य की यथोचित दशाएं सुनिश्चित करके सभी को सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास के अवसर देता है। वह सार्वजनिक स्वास्थ्य का स्तर ऊंचा करके नागरिकों को शैक्षणिक प्रगति का प्रबंध भी करता है।


प्रश्न 2. सामाजिक न्याय के क्रियान्वयन में संविधान की भूमिका की व्याख्या कीजिए। 

अथवा

 भारत में सामाजिक न्याय की स्थापना हेतु कौन-कौन से संवैधानिक प्रयत्न किए गए हैं?

उत्तर- भारतीय संविधान निर्माताओं ने सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय की स्थापना को संविधान की प्रस्तावना में स्थान दिया तथा इसे सरकार के प्रमुख लक्ष्य के रूप में घोषित किया।

भारत के संविधान के चौथे अध्याय में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का उल्लेख सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की स्थापना की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 में स्पष्ट रूप से लिखा है कि "राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्रमाणित करें, भरसक प्रभावी रूप से स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृद्धि का प्रयास करेगा।”

राज्य विशिष्ट रूप से आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और ना सिर्फ व्यक्तियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में निवास करने वाले तथा विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूह के मध्य भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं एवं अवसरों की समानता समाप्त करने का प्रयास करेगा।


भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39, 41, 42, एवं  42वें और 44वें संविधानिक संशोधन द्वारा इन में जोड़े गए निर्देशक तत्व भी प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध हैं। 


प्रश्न 3. सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए किए गए सरकारी प्रयत्नों का उल्लेख करते हुए वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालिए।

उत्तर- स्वतंत्र भारत की सरकारों ने सामाजिक न्याय की स्थापना हेतु निम्न कदम उठाए- 

(1) आजादी के तुरंत बाद जमीन दारी तथा जागीरदारी प्रथा को समाप्त कर दिया गया ताकि काश्तकारों का भूमि पर स्वामित्व स्थापित हो सके ।

(2) पंचवर्षीय योजनाएं लागू करके कृषि एवं उद्योगों की प्रगति, शिक्षा एवं स्वास्थ्य की सुविधाओं का प्रसार, रोजगार एवं कार्य के अवसरों में वृद्धि तथा राष्ट्रीय आय एवं लोगों के रहन-सहन के स्तर को ऊंचा उठाने के प्रयास लगातार किए जा रहे हैं।

(3) बच्चों की शोषण से रक्षा के लिए अनेक कानून पारित किए गए हैं। बीमारी एवं दुर्घटना के संबंध में मजदूर वर्ग में बीमा योजना लागू की गई है।

(4) छुआछूत मिटाने हेतु कानूनी एवं अन्य प्रयास किए गए हैं। अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा पिछड़ी जातियों के बालक एवं बालिकाओं को छात्रवृत्तियाँ तथा अन्य सुविधाएं देकर उन्हें शिक्षित करने का प्रयास किया गया है।


वर्तमान स्थिति

उक्त शासकीय प्रयासों के बावजूद भारत में सामाजिक न्याय के लक्ष्य को अभी तक हासिल नहीं किया जा सका है। आज भी भारतीय जनता बेरोजगारी, अशिक्षा, गरीबी तथा शोषण से पीड़ित है । भ्रष्टाचार की जड़ें लगातार गहरी होती जा रही हैं। देश के एक बड़े हिस्से को भरपेट भोजन नहीं मिल पाता है । सत्ता रूट वर्ग ने इस दिशा में कोई ठोस कार्य नहीं किए हैं तथा लुभावने नारों का ही अधिक सहारा लिया है। इस दिशा में अभी ठोस कार्य किए जाने जरूरी है नहीं तो भारत में सामाजिक न्याय की स्थापना एक कोरा स्वप्न मात्र ही बना रहेगा।






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