mp board class 11th Hindi chapter 5 solution// गलता लोहा के प्रश्न उत्तर

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class 11th hindi chapter 5 galta loha question answer//chapter - गलता लोहा

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अध्याय - 5

                           गलता लोहा          - शेखर जोशी




1. बूढ़े वंशीधर जी के बूते का अब यह सब काम नहीं रहा। यही क्या, जन्म भारत पुरोहिताई के बूते पर उन्होंने घर-संसार चलाया था, वह भी अब वैसे कहां रह पाते हैं! यजमान लोग उनकी निष्ठा और संयम के कारण ही उन पर श्रद्धा रखते हैं लेकिन बुढ़ापे का जर्जर शरीर अब उतना कठिन श्रम और व्रत-उपवास नहीं झेल पाता। सुबह-सुबह जैसे उससे सहारा पाने की नीयत से ही उन्होंने गहरा नि:श्वासस लेकर कहा था- 'आज गणनाथ जाकर चंद्रदत्त जी के लिए रुद्रीपाठ करना था, अब मुश्किल ही लग रहा है। यह दो मील की सीधी चढ़ाई अब अपने बूते कि नहीं। एकाएक न भी नहीं कहा जा सकता, कुछ समझ में नहीं आता!'


संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक आरोह के पाठ 'गलता लोहा' से लिया गया है। इसके रचयिता शेखर जोशी जी हैं।


प्रसंग - वंशीधर बुजुर्ग ब्राह्मण है, उनकी आजीविका का साधन पूजा-पाठ कराना है। उन्हें गणनाथ जाकर चंद्रदत्त के लिए अनुष्ठान कराना है। लेकिन अपनी असमर्थता के कारण नहीं जा पा रहे हैं। अनुष्ठान कराने के लिए जाने को वे अपने बेटे मोहन से सहयोग की उम्मीद से कहते हैं। उस समय की वंशीधर की मनोदशा का वर्णन किया गया है।


व्याख्या - मोहन तुम चंद्रदत्त जी के यहां आज गणनाथ जाकर भगवान शंकर की पूजा करा आना। मेरा बुढ़ापे का शरीर कमजोर होता जा रहा है। इस कारण कठिन परिश्रम भी नहीं कर पाता और व्रत और उपवास भी नहीं सहन कर पाता। अपनी लगन और समर्पण के कारण आज भी लोग पूजा कराने के लिए हमें बुलाते हैं। अतः पूजा कराने वाले लोगों से अचानक मना भी नहीं कर सकते और मैं शारीरिक कमजोरी के कारण काम भी नहीं कर पाता। वंशीधर ने पूजा पाठ की दम पर अपने परिवार का भरण-पोषण किया था, इस कारण वे कर्तव्य बोध से मना नहीं कर पा रहे थे और उनका स्वास्थ्य उनका साथ नहीं दे रहा था। अतः वे असमंजस में हैं कि क्या किया जाए।



2. इस बार मास्टर त्रिलोक ने उसके लाए हुए बेंत का उपयोग करने की वजह ज़बान की चाबुक लगा दी थी, 'तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहां लगेगा इसमें?' अपने थैले से पाँच-छह दराँतियाँ निकालकर उन्होंने धनराम को धार लगा लाने के लिए पकड़ा दी थी।


संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक आरोह के पाठ 'गलता लोहा' से लिया गया है। इसके रचयिता शेखर जोशी जी हैं।


प्रसंग - धनराम मंदबुद्धि का छात्र है। उससे मास्टर त्रिलोक सिंह तेरह का पहाड़ा सुनते हैं लेकिन वह नहीं सुना पाता। उस समय का वर्णन किया है।


व्याख्या - धनीराम की कमजोर बुद्धि के कारण वह मास्टर त्रिलोक सिंह से हमेशा मार खाता था। मास्टर त्रिलोक सिंह सज़ा पाने वाले से ही संटी (बेंत) मंगाते थे। इस बार धनराम के तेरह का पहाड़ा पुरा न सुनाने पर उससे संटी न मंगाकर मास्टर त्रिलोक सिंह ने जवान की चाबुक (व्यंग बाण) चला दिए और कहा कि तेरे दिमाग में लोहा भरा है चूँकि धनराम के यहां लोहार का काम होता है। अतः तेरे दिमाग में पढ़ाई का असर नहीं होगा।


3. किताबों की विद्या का ताप लगाने की सामर्थ्य धनीराम के पिता की नहीं थी। धनाराम हाथ पैर चलाने लायक हो हुआ ही था कि बाप ने उसे धौंकनी फूँकने या सान लगाने के कामों में उलझाना शुरू कर दिया और फिर धीरे-धीरे हाथों से लेकर घन चलाने की विद्या सिखाने लगा। फर्क इतना ही था कि जहाँ मास्टर त्रिलोक सिंह उसे अपनी पसंद का बेंत चुनने की छूट दे देते थे वहां गंगाराम का चुनाव स्वयं करते थे और जरा सी गलती होने पर छड़, बेंत, हत्था जो भी हाथ लग जाता उसी से अपना प्रसाद दे देते।


संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक आरोह के पाठ 'गलता लोहा' से लिया गया है। इसके रचयिता शेखर जोशी जी हैं।


प्रसंग - धनराम के पिता गंगाराम के द्वारा अपने बेटे को दी गई शिक्षा का वर्णन किया है।


व्याख्या - धनराम के पिता गंगाराम लोहार थे, उनको अपने काम में पूर्ण योग्यता हासिल थी। लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में उन्हें ज्ञान नहीं था। अपने काम में लगे रहने के कारण तथा धन की तंगी के कारण वह अपने बेटे को पढ़ाई लिखाई के योग्य बनाने में समर्थ नहीं था। जैसे ही धनाराम बड़ा हुआ तो पिता ने उसे अपने लुहारगिरी के काम में लगा लिया। उसे धौंकनी फूँकने, सान से लेकर घन चलाने तक सिखा दिया। त्रिलोक सिंह मास्टर पढ़ाते समय गलती करने पर केवल बेंत से मारते थे, जबकि गंगाराम जब सिखाते थे तो गलती हो जाने पर अपने बेटे को छड़, बेंत, हत्था जो भी हाथ लग जाता उसी से मारना शुरू कर देते थे।


4. प्राइमरी स्कूल की सीमा लाँघते ही मोहन ने छात्रवृत्ति प्राप्त कर त्रिलोक सिंह मास्टर की भविष्यवाणी को किसी हद तक सिद्ध कर दिया तो साधारण हैसियत वाले यजमानों की पुरोहिताई करने वाले वंशीधर तिवारी का हौसला बढ़ गया और वे भी अपने पुत्र को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाने का स्वपन देखने लगे। पीढ़ियों से चले आते पैतृक धंधे ने उन्हें निराश कर दिया था। दान-दक्षिणा के बूते पर वे किसी तरह परिवार का आधा पेट भर पाते थे। मोहन पढ़-लिखकर वंश दीर्द्र्य को मिटा दे यह उनकी हार्दिक इच्छा थी।


संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक आरोह के पाठ 'गलता लोहा' से लिया गया है। इसके रचयिता शेखर जोशी जी हैं।


प्रसंग - मोहन की योग्यता को देखकर वंशीधर तिवारी की इच्छा का वर्णन किया।


व्याख्या - मोहन तिवारी अपने पैतृक व्यवसाय से असंतुष्ट थे। उनके द्वारा पूजा पाठ कराने वाले यजमान भी आर्थिक रूप से समृद्ध नहीं थे। वे लोग सामान्य सामर्थ्य वाले थे। अतः  दान दक्षिणा में कोई मोटी रकम नहीं मिलती थी लेकिन किसी तरह उन्होंने अपने इसी दान दक्षिणा से परिवार का आधा अधूरा-पालन किया। वंशीधर तिवारी का बेटा मोहन होशियार था यह बात उसके स्कूल के मास्टर त्रिलोक सिंह कहते थे। मोहन ने प्राइमरी स्कूल अर्थात कक्षा पाँच की परीक्षा अच्छे अंको से उत्तीर्ण की और छात्रवृत्ति ली। उसकी योग्यता को देखकर वंशीधर जी उसे आगे पढ़ाने और पढ़-लिखकर उसे बड़ा आदमी बनाने का सपना देखने लगे। उनकी यह प्रबल इच्छा थी कि मोहन पढ़ लिख कर बड़ा आदमी बन कर घर की पीढ़ियों से चली आ रही गरीबी को दूर कर देगा।


5. लेकिन इच्छा होने भर से ही सब कुछ नहीं हो जाता। आगे की पढ़ाई के लिए जो स्कूल था वह गांव से चार मील दूर था। दो मील की चढ़ाई के अलावा बरसात के मौसम में रास्ते में पड़ने वाली नदी की समस्या अलग थी। तो भी वंशीधर ने हिम्मत नहीं हारी और लड़के का नाम स्कूल में लिखा दिया। बालक मोहन लंबा रास्ता तय कर स्कूल जाता है और छुट्टी के बाद थका-मांदा घर लौटता तो पिता पुराणों की कथाओं से विद्याव्यसनी बालकों का उदाहरण देकर उसे उत्साहित करने की कोशिश करते रहते। 


संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक आरोह के पाठ 'गलता लोहा' से लिया गया है। इसके रचयिता शेखर जोशी जी हैं।


प्रसंग - वंशीधर तिवारी अपनी इच्छा अनुसार मोहन को पढ़ाने के लिए दूर गांव भिजवाते हैं।


व्याख्या - मोहन को प्राइमरी स्कूल से आगे की पढ़ाई के लिए चार मील दूर गांव में स्थित स्कूल में भिजवा दिया। स्कूल आना-जाना सरल नहीं था रास्ते में दो मील की चढ़ाई तथा नदी पार करना पड़ता था। बरसात के समय नदी में पानी चढ़ जाता था तो आना-जाना और कठिन हो जाता था। इन बातों के होते हुए भी वंशीधर मोहन को विद्यालय भेजते रहे। मोहन आने-जाने में तक जाता था, फिर भी उसके पिता उसका मनोबल बढ़ाने के लिए पुराण की कथाएं सुनाते थे। इन कथाओं में लगन से पढ़ाई करने वाले विद्यार्थी को उदाहरण दिया करते थे उनकी इच्छा थी कि किसी तरह मोहन अपनी पढ़ाई करता रहे।


6. वंशीधर को जैसे रमेश के रूप में साक्षात् भगवान मिल गए हों। उनकी आंखों में पानी छलछलाने लगा। भरे गले से वे केवल इतना ही कह पाए के बिरादरी का यही सहारा होता है।

छुट्टियां शेष होने पर रमेश वापस लौटा तो मां-बाप और अपनी गांव की दुनिया से बिछुड़कर सहमा-सहमा-सा मोहन भी उसके साथ लखनऊ आ पहुंचा। अब मोहन की जिंदगी का एक नया अध्याय शुरू हुआ। घर की दोनों महिलाओं, जिन्हें वह चाची और भाभी कहकर पुकारता था, का हाथ काटने के अलावा धीरे-धीरे वह मुहल्ले की सभी चाचियों और भाभियों के लिए काम-काज में हाथ बँटाने का साधन बन गया।


संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक आरोह के पाठ 'गलता लोहा' से लिया गया है। इसके रचयिता शेखर जोशी जी हैं।


प्रसंग - वंशीधर अपने बेटे मोहन को पढ़ाना चाहते थे। संयोग से उन्हीं की बिरादरी का एक संपन्न युवक रमेश से मुलाकात हुई। रमेश ने मोहन को अपने साथ लखनऊ ले जाने का सुझाव दिया। उस समय में वंशीधार तिवारी का कथन और मोहन का लखनऊ जाने का वर्णन किया है।


व्याख्या - वंशीधर तिवारी ने कहा कि अपने समाज का यही सहारा होता है कि एक-दूसरे के काम में आए। भी भावुक हो गए और उनकी आंखों में आंसू आ गए उनको लगा कि रमेश भगवान के रूप में मेरे सामने आ गया। रमेश की छुट्टियां जब खत्म हो गई तब वह मोहन को अपने साथ लखनऊ ले गया। वहां पर उसकी पढ़ाई लिखाई तो कम हुई लेकिन घर गृहस्ती के कामों में ज्यादा लगा दिया। उसे परिवार के कामों के साथ मुहल्ले के लोगों के भी काम करने पड़ते थे। उसका जीवन एक नौकर की तरह बना दिया। इस प्रकार मोहन के जीवन का एक नया अध्याय शुरू हो गया।


7. औसत दफ्तरी बड़े बाबू की हैसियत वाले रमेश के लिए मोहन को अपना भाई-बिरादरी बतलाना अपने सम्मान के विरुद्ध जान पाड़ता था और उसे घरेलू नौकर से अधिक हैसियत वह नहीं देता था, इस बात को मोहन भी समझने लगा था। थोड़ी-बहुत हीला-हवाली करने के बाद रमेश ने निकट के ही एक साधारण से स्कूल में उसका नाम लिखवा दिया। लेकिन एकदम नए वातावरण और रात-दिन के काम के बोझ के कारण गांव का वह मेधावी छात्र शहर के स्कूली जीवन में अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया। उसका जीवन एक बंधी-बंधाई लिक पर चलता रहा।


संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक आरोह के पाठ 'गलता लोहा' से लिया गया है। इसके रचयिता शेखर जोशी जी हैं।


प्रसंग - मोहन के लखनऊ जाने के बाद रमेश के द्वारा उससे किए जाने वाले व्यवहार का वर्णन किया है।


व्याख्या - यद्यपि रमेश एक सामान्य कर्मचारी था परंतु वह मोहन को अपना भाई बताने में अपना अपमान समझता था। वह व्यवहार में भी उसे नौकर से ज्यादा महत्व नहीं देता था। इस बात को मोहन भी अच्छी तरह समझ गया था। रमेश, मोहन को शहर में पढ़ाई कराने के लिए लेकर आया था लेकिन उसे स्कूल में प्रवेश नहीं दिलवाया। जब ज्यादा कहा गया तो उसने एक सामान्य से विद्यालय में उसको प्रवेश दिलवा दिया। परंतु गांव का एक होनहार छात्र दिन-रात के काम के बोझ शहरी वातावरण से अपरिचित शहर के स्कूल में अपनी योग्यता नहीं दिखा पाया। उसका जीवन एक सामान्य जीवन बनकर रह गया।


8. मुझे मोहन की कारीगरी पर उतना आश्चर्य नहीं हुआ जितना पुरोहित खानदान के एक युवक का इस तरह के काम में, उसकी भट्टी पर बैठकर, हाथ डालने पर हुआ था। वह शंकित दृष्टि से इधर-उधर देखने लगा। धनराम की संकोच, असमंजस और धर्म-संकट की स्थिति से उदासीन मोहन संतुष्ट भाव से अपने लोहे के छल्ले की त्रुटिहीन गोलाई को जांच रहा था। उसने धनराम की ओर अपनी कारीगरी की स्वीकृति पाने की मुद्रा में देखा। उसकी आंखों में एक सर्जक चमक थी- जिसमें न स्पर्धा थी और न ही किसी प्रकार की हार-जीत का भाव।


संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक आरोह के पाठ 'गलता लोहा' से लिया गया है। इसके रचयिता शेखर जोशी जी हैं।


प्रसंग - ऊंची (ब्राह्मण) जाति में जन्म लेने के बावजूद लोहार के नीची जाति के काम को कुशलतापूर्वक करने पर ब्राह्मण एवं लोहार युवक की मनोदशा का वर्णन किया है।


व्याख्या - मोहन ने धनराम के द्वारा बनाए जा रहे लोहे के छल्ले को सही आकृति दे डाली। धनराम को उसकी कार्यकुशलता पर आश्चर्य नहीं हुआ अपितु आश्चर्य इस बात पर हुआ कि एक ऊंचे कुल के व्यक्ति ने लोहार जैसे निम्न कोटि के कार्य को करने का साहस कैसे किया। दुविधा एवं शर्म से लज्जित हो गया। वही मोहन ऊंच-नीच के भाव को भुलाकर लोहे की गोलाई की कमी को प्रसन्न भाव से परख रहा था। उसने धनराम की ओर देखा शायद इसे यह स्वीकार है। मोहन को उसकी स्वीकृति की आवश्यकता भी नहीं थी क्योंकि उसके मन में रचनाकार का भाव था जिससे मन में प्रतिस्पर्धा और हार-जीत की भावना नहीं रहती।


पाठ्यपुस्तक के प्रश्श्नोत्तर


पाठ के साथ -  


प्रश्न 1. कहानी के उस प्रसंग का उल्लेख करें, जिसमें किताबों की विद्या और घन चलाने की विद्या का जिक्र आया है।


उत्तर - धनाराम लोहार पिता का बालक था। उसके दिमाग में गणित नहीं बैठता था। मास्टर त्रिलोक सिंह उसे तेरह का पहाड़ा पढ़ाते-पढ़ाते थक जाते थे और संटी से पीटते थे। उधर धनराम के पिता गंगाराम उसे लोहार का काम सिखा रहे थे। वे उसे सान चढ़ाना, धौंकनी फूँकना, हथौड़ा चलाना तथा घन चलाना सिखा रहे थे। वे भी गलती करने पर उसे छड़ी या हत्थे से पीटते थे। इस प्रकार धनराम एक साथ दो-दो विधाएं सीख रहा था- पढ़ाई की विद्या तथा लोहार-कर्म की विद्या।


प्रश्न 2. धनराम मोहन को अपना प्रतिद्वंदी क्यों नहीं समझता था?


उत्तर - धनराम स्वयं को नीची जाति का तथा मोहन को ऊंची जाति का समझता था। इस कारण उसके मन में बचपन से मोहन के प्रति सम्मान की भावना बैठ गई। दूसरे, मोहन कक्षा में उससे अधिक होशियार था। इसलिए मास्टर त्रिलोक सिंह ने उसे कक्षा का मॉनिटर बना दिया था। तीसरे, मास्टर जी कहा करते थे कि वह एक दिन बड़ा होकर उनका तथा स्कूल का नाम करेगा। इन सब बातों के कारण धनराम मोहन को अपना प्रतिद्वंदी नहीं समझता था।


प्रश्न 3. धनराम को मोहन के किस व्यवहार पर आश्चर्य होता है और क्यों?


उत्तर - धनराम को मोहन के हथौड़ा चलाने और लोहे की छड़ को गोलाई की कुशलता पर इतना अधिक आश्चर्य नहीं हुआ जितना कि उसके सीधे-सीधे एवं सामान्य व्यवहार पर। मोहन पुरोहित खानदान का पुत्र था। उसे ऊंची जाति का माना जाता था। सामान्यतः कोई ब्राह्मण बालक लोहार जैसे निम्न माने जाने वाले कार्य में हाथ नहीं डालता है। धनीराम को इसी बात पर आश्चर्य हुआ कि मोहन ने अपनी जाति को बुलाकर यह काम कैसे स्वीकार कर लिया।


प्रश्न 4. मोहन के लखनऊ में आने के बाद के समय को लेखक ने उसके जीवन का एक नया अध्याय क्यों कहा है?


उत्तर - लखनऊ आने के बाद में उनके जीवन में परिवर्तन आ गया। यहां उसे अपने घर से दूर रहना था। गांव में रहने पर उसकी शिक्षा के दरवाजे बंद थे। यहां आकर वे रास्ते खुले। उसे पढ़ने का अवसर मिला लेकिन यह पढ़ने का अवसर उसे आनंद नहीं दे पाया। क्योंकि उसे दिनभर घरेलू नौकर की तरह काम करना पड़ता था। शहर के एकदम नए वातावरण एवं रात-दिन घर के कामों में व्यस्त रहने के कारण गांव का मेधावी छात्र मोहन वहां पढ़ाई में बहुत पीछे रह गया। अदा यह अध्याय बहुत सुखद नहीं था, परंतु था तो नया अध्याय ही।


प्रश्न 5. मास्टर तिरलोक सिंह के किस कथन को लेखक ने जबान के चाबुक कहा और क्यों? 


उत्तर - मास्टर त्रिलोक सिंह ने धनराम को यह शब्द कहे- ' तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहां लगेगा इसमें?'

 लेखक ने इन व्यंग्य वचनों को 'जबान के चाबुक' कहने के पीछे मास्टर की मानसिकता को दर्शाया है। धनराम के घर लोहा से संबंधित कार्य होता था उसका पढ़ाई-लिखाई में ध्यान नहीं था। अतः मास्टर ने खीझ कर इस कथन को कहा है।


प्रश्न 6. (1) बिरादरी का यही सहारा होता है।

(क) किसने किससे कहा?

(ख) किस प्रसंग में कहा?

(ग) किस आशय से कहा?

(घ) क्या कहानी में यह आशय स्पष्ट होता है? 


उत्तर - (क) यह वाक्य वंशीधर तिवारी ने अपनी बिरादरी के युवक रमेश से कहा।

(ख) मोहन की पढ़ाई के बारे में

(ग) बंशीधर तिवारी ने उपरोक्त वाक्य कृतज्ञता के भाव से कहा।

(घ) इस कहानी में वंशीधर तिवारी का आशय सिद्ध नहीं हो सका। रमेश ने जिस सहानुभूति से मोहन को पढ़ाना-लिखाना स्वीकार किया था, उसे वह निभा नहीं सका। उसने मोहन का पूरी तरह शोषण किया।


(2) उसकी आंखों में एक सर्जक की चमक थी- कहानी का यह वाक्य - 

(क) किसके लिए कहा गया है?

(ख) किस प्रसंग में कहा गया है?

(ग) यह पात्र-विशेष के किन चारित्रिक पहलुओं को उजागर करता है?


उत्तर - (क) यह वाक्य मोहन के लिए कहा गया है।

(ख) मोहन धनराम लोहार की आफर पर बैठा था। धनराम एक मोटी छड़ वाले लोहे को ठीक से मोड़ नहीं पा रहा था। तभी मोहन ने अपनी ऊंची जाति की परवाह न करते हुए वह छड़ संभाली और कुशलता से उसे गोल कर दिया। इस सफलता के कारण उसकी आंखों में सृजन की चमक आ गई। उसे लगा कि यह प्रशंसनीय काम उसके हाथों से हुआ है।

(ग) (1)जाति-धर्म निरपेक्ष व्यवसाय, (2) उदारता, (3)लगनशीलता, (4) परिश्रमी, (5) कार्यकुशलता।


पाठ के आस-पास -


प्रश्न 1. गांव और शहर दोनों जगहों पर चलने वाले मोहन के जीवन-संघर्ष में क्या फर्क है? चर्चा करें और लिखें।


उत्तर - मोहन को गांव के जीवन में गरीबी साधनहीनता और प्राकृतिक बाधाओं का सामना करना पड़ा। पढ़ाई जारी रखने के लिए उसे रोज दो मील की ऊंचाई चढ़ना तथा पहाड़ी नदी को पार करना पड़ता था। बरसात के दिनों में कभी-कभी दूसरे गांव में रुकना पड़ता था। 

    शहर में आकर यह बाधाएं तो नहीं रहीं, लेकिन संघर्ष और भी कड़े हो गए। उसी दिन भर नौकरों की तरह काम करना पड़ता था। रमेश बाबू के घर वालों की हर बात माननी पड़ती थी। गली-मोहल्ले के लोगों के काम भी करने पड़ते थे। जिस पढ़ाई के लिए वह शहर में आया था, वह पढ़ाई उसे नाममात्र को मिल सकी। इस प्रकार मोहन के जीवन में संघर्ष ही संघर्ष रहे।


प्रश्न 2. एक अध्यापक के रूप में त्रिलोक सिंह का व्यक्तित्व आपको कैसा लगता है? अपनी समाज में उनकी खूबियों और खामियों पर विचार करें।


उत्तर - मास्टर त्रिलोक सिंह एक परंपरागत अध्यापक हैं। वे बच्चों को मारपीट कर पढ़ाई कराने में विश्वास रखते थे। बच्चों को डांटना, पीटना और कटु वचन कहना मानो उनका अधिकार है। वे धनराम पर तीनों तरीके आजमाते हैं।

       मास्टर जी के मन में जातिगत और उच्चता और अनीचता का भाव भी गहरे बैठा हुआ है। इसलिए वे मोहन को प्रेम करते हैं अतः धनराम का तिरस्कार करते हैं। धनराम के दिमाग में लोहा होने का व्यंग्य-वचन कहना शोभनीय नहीं कहा जा सकता। वे धनराम से मुफ्त में दराँतियों पर धार भी लगवातें हैं। इसकी भी प्रशंसा नहीं की जा सकती।

       मास्टर त्रिलोक सिंह बच्चों को पढ़ाने-लिखाने, सिखाने और आगे बढ़ाने में रुचि लेते हैं। उनके तरीके अशोभनीय हो सकते हैं, किंतु शिक्षा-कर्म में उनकी निष्ठा सच्ची है। निष्कर्ष में कह सकते हैं कि मास्टर त्रिलोक सिंह का व्यक्तित्व खूबियों और खामियों का मिश्रण है।


प्रश्न 3. गलता लोहा कहानी का अंत एक खास तरीके से होता है क्या इस कहानी का कोई अन्य अंत हो सकता है?चर्चा करें।


उत्तर - इस कहानी के अंत में यह स्पष्ट नहीं होता कि मोहन ने लोहे को गोल करने के बाद केवल सृजन-सुख लूटा और खेती करने चला गया, या ऐसे व्यवसाय को अपना लिया। यदि लेखक सांस्कृतिक रूप में यह स्पष्ट कर देता कि मोहन और धनराम दोनों ने मिलकर अपने इस व्यवसाय को आगे बढ़ाया। ताकि कहानी के द्वारा यह संदेश जाता कि अनुभव, योग्यता और भ्रम के द्वारा किसी कार्य को आगे बढ़ाया जा सकता है।


पद्य खण्‍ड 

Chapter - 1 कबीर

Chapter - 2 मीरा

Chapter - 3 पथिक

Chapter - 4 वे आँखें

Chapter - 5 घर की याद

Chapter - 6 चंपा काले अक्षर नहीं चीन्‍हती

Chapter - 7 गज़ल

Chapter - 8 अक्‍कमहादेवी

Chapter - 9 सबसे खतरनाक

Chapter - 10 आओ मिलकर बचाएं


गद्य खण्‍ड 

अध्याय - 1 नामक का दारोगा

अध्‍याय – 2 मियाँ नसीरूद्दीन


अध्याय – 3 अपू के साथ ढाई साल


अध्याय – 4 विदाई-संभाषण 


अध्याय – 5 गलता लोहा 


अध्याय – 6 स्‍पीति में बारिश


अध्याय – 7 रजनी


अध्याय – 8 जामुन का पेड़


अध्याय – 9 भारत माता 


अध्याय – 10 


वितान  

अध्याय - 2 राजस्थान की रजत बूंदें


अध्याय - 3 आलो आंधारि


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