उपान्यास किसे कहते हैं? उपन्यास का विकास क्रम
उपन्यास किसे कहते हैं? उपन्यास का अर्थ क्या है?
उपन्यास हिंदी साहित्य के इतिहास का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है। किंतु ऐसे हिंदी साहित्य के प्रमुख अंग के बारे में पढ़ते समय हमें कई चीजें जाननी होती हैं जैसे उपन्यास किसे कहते हैं? उपन्यास का क्या अर्थ होता है? उपन्यास का अर्थ क्या होता है? उपन्यास की क्या विशेषताएं होती हैं? ऐसे ही कई प्रश्न छात्रों के सामने आते हैं। इस पोस्ट में हम इसी बारे में जानेंगे तो इस पोस्ट को अंत तक जरूर पढ़ें। सबसे पहले छात्रों के मन में यही प्रश्न आता है कि आखिर उपन्यास किसे कहते हैं? केवल हिंदी साहित्य को अच्छे से पढ़ने वाले व्यक्तियों को ही इस बारे में अच्छी तरह से जानकारी होगी वरना कई सारे लोगों को तो सही मायनों में उपन्यास का अर्थ भी पता नहीं होगा।
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| उपन्यास किसे कहते है? |
उपन्यास किसे कहते हैं?
उपन्यास शब्द 'उप' उपसर्ग और 'न्यास' इन दो पदों के योग से बना है। इन दोनों पदों के योग से ही उपन्यास शब्द बनता है। जिसका अर्थ निम्न होता है - उप + न्यास = सामने रखी हुई वस्तु जिसे पढ़कर ऐसा प्रतीत हो कि यह हमारी ही कहानी हो, हमारे ही शब्दों में लिखी हुई।
अर्थात
" वह वस्तु या आकृति जिसको पढ़ कर पाठक को ऐसा लगे कि यह उसी की है, उसी के जीवन की कथा, उसी की भाषा में कहीं गई है।"
उपन्यास मनुष्य जीवन में की काल्पनिक कथा होती है।
उपन्यास को मुंशी प्रेमचंद्र जी ने "मानव चरित्र का चित्र कहा है"
उपन्यास में मनुष्य के आसपास के वातावरण दृश्य और नायक आदि सभी उस उपन्यास में मौजूद होते हैं। उपन्यास में मानव जीवन के चित्र का भवन निकट रखा गया होता है और उसके बाद उस नायक के जीवन का चित्र एक कागज पर उतारा जाता है। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है। उपन्यास को मध्यमवर्गीय जीवन का महाकाव्य भी कहा गया है।
उपन्यास का अर्थ
जैसा कि हम ऊपर जान चुके हैं कि उपन्यास दो शब्द उप + न्यास से मिलकर बना है। उपन्यास शब्द में 'अस' धातु होती है। 'नि' उपसर्ग से 'न्यास' शब्द बनता है। 'उप' का अर्थ होता है 'समीप' और 'न्यास' का अर्थ होता है 'धरोहर' उपन्यास उसी समय से शुरू हो गया था जब व्यक्तियों ने आपस में अपनेपन की भावना से विचार विनिमय करना शुरू किया था।
"उपन्यास की परिभाषा"
मुंशी प्रेमचंद के अनुसार, "उपन्यास मानव चरित्र का एक चित्र है। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है।"
बाबू गुलाब के अनुसार, " उपन्यास मानव जीवन का एक चित्र है, परंतु वह मानव जीवन का प्रतिबिंब नहीं है। क्योंकि दीवाने का प्रतिबंध कभी भी पूरा नहीं हो सकता है। मानव जीवन अत्यंत ही जटिल है जिसके कारण उसका प्रतिबिंब है सामने रखना असंभव है। कोई भी उपन्यासकार नायक के जीवन के निकट से निकट आ सकता है, किंतु उसे भी उस नायक के जीवन में हुई कई घटनाओं में से बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है, लेकिन जहां पर वह उपन्यासकार कुछ छोड़ता है वहां वह अपनी ओर से जोड़ता भी है।"
डॉ श्याम सुंदर दास के अनुसार, " उपन्यास मनुष्य जीवन की काल्पनिक कथा है।"
उपन्यास की विशेषताएं
उपन्यास की विशेषताएं निम्न है -
1. उपन्यास एक विस्तृत रचना होती है।
2. उपन्यास में नायक के जीवन की कई पक्षों का समावेश होता है।
3. उपन्यास में वास्तविक तथा काल्पनिक कथाओं का मिश्रण भी होता है।
4. उपन्यास में मानव जीवन का सत्य को उजागर करता है।
उपन्यास के तत्व
1. कथावस्तु - कथावस्तु को उपन्यास का प्राण कहा जाता है। उपन्यास की कथावस्तु नायक के जीवन से संबंधित होते हुए भी काल्पनिक होती है किंतु काल्पनिक कथानक, स्वाभाविक एवं यथार्थ प्रतीत हो नहीं तो पाठक उसके साथ तालमेल एंड नहीं कर पाएगा। किसी भी उपन्यासकार को यथार्थ जीवन से संबंधित केवल सच्ची और संभावित घटनाओं को ही अपनी रचनाओं में लिखना चाहिए तथा जो तथ्य नायक के जीवन में होते हैं उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए यही गुण उपन्यास को कहानी से अलग करते हैं। उपन्यास में एक कथा मुख्य होती है तथा अन्य कथाएं गौण होती हैं यह गौण कथाएं उपन्यास की मुख्य कथा को गति प्रदान करती हैं। किंतु यह कथाएं मुख्य कथा की सहायक तथा विकास करने वाली होनी चाहिए। ताकि मुख्य और प्रसंग के कथाएं परस्पर संबंध स्थापित कर सकें।
2. पात्र और चरित्र-चित्रण - उपन्यास में दूसरा प्रमुख तथा अनिवार्य तत्व पत्र और चरित्र-चित्रण होता है। पात्र के चरित्र चित्रण पर ही समस्त उपन्यास की सफलता निर्भर करती है। उपन्यासकार को पात्रों का चयन करते समय सावधानी बरतनी चाहिए। ताकि उपन्यास में पात्रों की भीड़ इकट्ठी ना हो सके और उपन्यासकार प्रत्येक पात्र के साथ न्याय कर सके। अर्थात उपन्यास में उपस्थित सभी पात्रों की भूमिका ठीक प्रकार से होनी चाहिए।
पात्र दो प्रकार के होते हैं -
● प्रधान पात्र - यह पात्र कथा का नायक होता है इसी पात्र के चारों ओर उपन्यास की संपूर्ण कथा चलती रहती है। यही पात्र उपन्यास की कथा को शुरू से लेकर अंत तक गति प्रदान करता है और उपन्यास की कथा को लक्ष्य की ओर अग्रसर करता है।
● गौण पात्र - गौण पात्र प्रधान पात्र के सहायक बन कर आते हैं, इसका कार्य कथा को गति प्रदान करना होता है इसके साथ ही साथ यह है वातावरण की गंभीरता को कम करता है और वातावरण की रचना करता है और इसके साथ ही साथ अन्य पात्रों के चरित्र पर प्रकाश भी डालता है। यह बीच-बीच में उपस्थित होकर पर प्रधान पात्र अथवा कथावस्तु को गति देते रहते हैं।
3. संवाद - संवादों की योजना करते समय उपन्यासकारों को सावधानी बरतनी चाहिए। पात्रों के बीच परस्पर वार्तालाप कथानक के अनुरूप होना चाहिए यह वार्तालाप ही पाठकों को कथा से जोड़े रखता है। संवादों का प्रयोग कथानक को गति देना तथा नाटकीयता लाने में किया जाता है। संवाद मुख्य रूप से पात्रों के भावों, विचारों, संवेदना और मनोव्रतियों को व्यक्त करने में सहायता प्रदान करते हैं।
4. वातावरण - वातावरण का निर्माण प्रत्येक के उपन्यास में आवश्यक है। पाठक उपन्यास के योग और उसकी परिस्थिति से बहुत दूर होता है पाठक के का उन्हें पूरी तरह समझने के लिए उसे उपन्यासकार के वर्णन का सहारा लेना पड़ता है। इसीलिए पाठक के प्रति उपन्यासकार का दायित्व बढ़ जाता है कि वह इन सब परिस्थितियों को उपन्यास में अच्छी तरह से प्रकट करें। पात्रों के बाहरी और आंतरिक वातावरण का सफल चित्रण लेखक तभी कर सकता है जब वह अपने देश, काल, वेशभूषा आदि के बारे में पूर्ण जानकारी रखता हो।
5. भाषा-शैली - उपन्यासकार सबसे अनिवार्य तत्व भाषा शैली होता है। भाषा शैली की योजना करते समय उसमें छोटे-छोटे वाक्य, अलंकार, लाक्षणिकता, व्यंजक, मुहावरे, लोकोक्ति आदि का अच्छी तरह से उपयोग किया जाना चाहिए। इनका प्रयोग करते समय कथानक का विशेष ध्यान रखना चाहिए। समय और परिस्थिति के अनुरूप ही भाषा शैली में इनका उपयोग करना चाहिए। उपन्यास की भाषा प्रभावी तथा पात्रों के अनुकूल होने पर उपन्यास अपने उद्देश्यों की पूर्ति अंततः करता है।
6. उद्देश्य - किसी भी साहित्य की रचना किसी विशेष उद्देश्य के लिए की जाती है। उपन्यास का क्षेत्र काफी विशाल होता है, इसके कथानक विभिन्न क्षेत्र के हो सकते हैं। इसलिए इस के कथानक का कोई सीमित दायरा नहीं है। हमारी गद्य साहित्य दृष्टि के पीछे कोई ना कोई भारतीय मान्यता या उद्देश्य आदि आवश्य रहता है। एक अनुभवी उपन्यासकार का जीवन और जगत प्रति उसकी प्रत्येक समस्या के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण होता है जो किसी ना किसी रूप में उपन्यास के पात्रों और घटनाओं के माध्यम से अभिव्यक्ति पाते हैं, यही उपन्यासकार का उद्देश्य होता है।
उपन्यास का विकास क्रम
1. भारतेंदु युग - हिंदी के भारतेंदु युगीन मौलिक उपन्यासों पर संस्कृत के कथा साहित्य एवं परिवर्ती नाटक साहित्य के साथ ही बंगाल उपन्यासों की छाया पाई जाती है। इस दृष्टिकोण से हिंदी का प्रथम उपन्यास "परीक्षा गुरु" 1882 माना जाता है। भारतेंदु युग में सामाजिक ऐतिहासिक जासूसी तथा रोमानी उपन्यासों की रचना की परंपरा का सूत्रपात हुआ।
2. द्विवेदी युग - द्विवेदी युग में खड़ी बोली ने अपने रूप को निखारा, परिमार्जित रूप ग्रहण किया, काव्य में नैतिक मूल्यों को प्रतिष्ठा दी।
3. प्रेमचंद युग - उपन्यास लेखन क्षेत्र में प्रेमचंद्र जी के अमूल्य योगदानों के कारण इस युग को प्रेमचंद्र युग के नाम से जाना जाता है। उपन्यास रचना की दृष्टि से यह अत्यंत समृद्ध काल है। हिंदी उपन्यास को प्रेमचंद्र की बहूमुखी देन है। इस युग में प्राय: मध्यवर्ग उपन्यास के केंद्र में रहा।
4. प्रेमचंरोत्तर युग - प्रेमचंरोत्तर युग में अनेक प्रवृतियां एवं प्रभाव उपन्यास के क्षेत्र में परिलक्षित हुए। यह काल पर्याप्त प्रौढ़ एवं विकसित काल है। इसी युग की प्रमुख उपन्यास एवं उपन्यासकार हैं। जैसे -
हिंदी के प्रमुख उपन्यास एवं उपन्यासकार
उपन्यास के प्रकार
उपन्यास निम्न प्रकार के होते हैं -
सांस्कृतिक उपन्यास
सामाजिक उपन्यास
यथार्थवादी उपन्यास
ऐतिहासिक उपन्यास
मनोवैज्ञानिक उपन्यास
राजनीतिक उपन्यास
प्रयोगात्मक उपन्यास
तिलस्मी उपन्यास
वैज्ञानिक उपन्यास
धार्मिक उपन्यास
लोक कथात्मक उपन्यास
आंचलिक उपन्यास
रोमानी उपन्यास
कथानक प्रधान उपन्यास
चरित्र प्रधान उपन्यास
वातावरण प्रदान उपन्यास
महाकाव्यात्मक उपन्यास
जासूसी उपन्यास
समस्या प्रधान उपन्यास
भाव प्रधान उपन्यास
आदर्शवादी उपन्यास
नीति प्रधान उपन्यास
प्राकृतिक उपन्यास
