लैमार्कवाद और डार्विनवाद में अंतर। Difference between Lamarckism and Darwinism

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लैमार्कवाद और डार्विनवाद में अंतर। Difference between Lamarckism and Darwinism

लैमार्कवाद क्‍या है?

लैमार्कवाद –

विकास का पहला सिद्धांत लैमार्क ने 1801 ई. में दिया। सन् 1809 में अपने वाद की विस्‍तृत रूपरेखा को उन्‍होंने अपनी पुस्‍तक ‘’फिलोसिफिक जूलोसिफिक’’ में दी। जिसे लैमार्कवाद या लैमार्क का उपाजित लक्षणों की वंशागति का सिद्धांत कहते हैं। 

या

फ्रांस के प्रसिद्ध वैज्ञानिक लैमार्क ने सन् 1809 में सर्वप्रथम विकास की वैज्ञानिक व्‍याख्‍या दी, जिसे लैमार्कवाद कहते हैं।

सिद्धांत –

इस सिद्धांत का संक्षिप्‍त विवरण निम्‍न है –

1. आंतरिक जैव बल – जीवों के आंतरिक बल में जीवों के आकार को बढ़ाने की प्रवृत्ति के होती है। जिसका अर्थ यह है कि जीव के पूरे शरीर या किसी अंग में आकार में बढ़ने की प्रवृत्ति होती है।

2. वातावरण का प्रभाव -  वातावरण सभी प्रकार के जीवों को प्रभावित करता है परिवर्तित वातावरण ही जीवों में नई आवश्‍यकताओं को जन्‍म देता है। जीवों के लगातार जरूरतों के अनुसार नये अंग व शरीर के किसी अंग का विकास होता है।

3. अंगों का उपयोग एवं अनुपयोग -  अंगों का विकास व उसके कार्य करने की क्षमता उसके उपयोग व अनुपयोग पर निर्भर करता है। किसी अंग का लगातार उपयोग करता है। किसी अंग का लगातार उपयोग करते रहने से वह अंग मजबूत तथा पूर्ण विकसित हो जाता है लेकिन उसके अनुपयोग से इसका उल्‍टा प्रभाव पड़ता है।

4. उपार्जित लक्षणों की वंशागति – इस प्रकार जीरों में आये परिवर्तन आनुवंशिकी द्वारा उनकी संतानों में वंशागत हो गया।

लैमार्कवाद का उदाहरण –

उपयोग का प्रभाव – अफ्रीका के रेगिस्‍तान में पाये जाने वाला जिराफ ऊंचे-ऊंचे पेड़ों की पत्तियों को खाता है जिसके लिए उसको अगली टांग पिछली टांगों से लम्‍बी तथा गर्दन भी लम्‍बी होती थी। लैमार्क के मत अनुसार इनके पूर्वज की गर्दन तथा अगली टांगे सामान्‍य आकार की थी। क्‍योंकि उस समय वहां के जंगल तथा घास के मैदान थे। जैसे-जैसे जलवायु शुष्‍क होती गयी। घास सूखने लगी तो उन्‍हें पेड़-पौधे पर निर्भर होना पड़ा। जिसके फलस्‍वरूप उन्‍हें आपने अगले पैर और गर्दन को ऊपर खींचना पड़ता था। धीरे-धीरे इन्‍हें ऊंचे पेड़ों की पत्तियों पर निर्भर होना पड़ा। जिसके फलस्‍वरूप अफ्रीका के रेगिस्‍तान में लम्‍बी अगली टांग व लम्‍बी गर्दन वाले जिराफों का उद्भव हुआ। बत्तखों तथा दूसरे जलीय पक्षियों में पानी में तैरने के लिए इनके पादों के ऊंग‍लियों के बीच की जगह की त्‍वचा के बीच की जगह तनी रहती है। जिसके कारण जलयुक्‍त पदों का निर्माण हुआ।

अनुपयोग का प्रभाव – लैमार्क के अनुसार सांप झाडि़यों तथा बिलों रहता है तथा जमीन पर रेंग कर चलता है जिसके कारण उसके पैर इस्‍तेमाल नहीं होते थे तथा बिल में घुसने में भी बाधा उत्‍पन्‍न करते थे। इसलिए इनके पैर धीरे-धीरे विलुप्‍त होते चले गए। जब अन्‍य सरीसृपों में पैर उपस्थित होते है।

लैमार्कवाद की आलोचना/दोष/कमियां – लैमार्कवाद के सिद्धांत की अत्‍यधिक आलोचना की गई। जिसमें मुख्‍य आलोचक बीजमान व लोएव थे। लैमार्कवाद की आलोचना निम्‍न उदाहरण से की गई –

1. बीजमान ने सफेद चूहों की पूंछ काट कर उनमें प्रजनन कराया कहीं पीढ़ी पीढि़यों तक प्रयोग करने के बाद भी इनमें उत्‍पन्‍न किसी भी शिशु में कटी हुई पूंछ नहीं पायी गई। इस यह सिद्ध हुआ की उपार्जित लक्षण वंशागत नहीं होते हैं।

2. भारतीय संस्‍कृति महिलाओं के नाक व कान छिद्र पाये जाते हैं। कई सदियों तक यह प्रक्रिया करने पर बावजूद भी उनकी संतानों में छिद्र का कोई अंश भी नहीं पाया जाता है।

3. अंधे व्‍यक्ति की संतान अंधी नहीं होती है।

4. लगातार कसरत करने वाले पहलवान की पेशियां मजबूत हो जाती हैं किंतु संतानें पिता के समान पेशियां मजबूत नहीं होती हैं।

5. दुर्घटना वस किसी व्‍यक्ति का अंग कट जाए तो उसकी संतानों में उस अंग का समान विकास हो जाता है।

लैमार्कवाद की विशेषताएं

  • ·         वातावरण पर सीधा प्रभाव
  • ·         अंगों का उपयोग और अनुपयोग
  • ·         अपार्जित लक्षणों की वंशागति
  • ·         अनुकूलन की प्रवृत्ति

डार्विनवाद क्‍या है?

डार्विनवाद – डार्विन की विचारधारा यह थी कि प्रकृति जंतु व पौधों का इस प्रकार चयन करती है कि वह जीव जो उस वातावरण में रहने के लिए सबसे अधिक अनुकूल होते हैं संरक्षित हो जाते हैं और वे जीव जो कम अनुकूलित होते हैं नष्‍ट हो जाते हैं।

प्राकृतिक चयनवाद के समझाने के लिए अपने विचार को निम्‍नलिखित में पुस्‍तुत किया –

1. जीवों की संख्‍या में बढ़ जाने की प्रवृत्ति – सभी जीवों में यह प्रवृत्ति होती है कि वे जन्‍म द्वारा अपने संख्‍या में अधिक से अधिक वृद्धि करें लेकिन उनसे उत्‍पन्‍न सभी जीव जीवित नहीं रह पाते क्‍योंकि उनकी वृद्धि ज्‍यामितीय अनुपात में होती है परंतु खाने व रहने का स्‍थान स्थिर होता है।

2. सीमान्‍त कारक – प्रत्‍येक जाति को रोकने के लिए कुछ वाहक होते हैं। जिससे उसकी संख्‍या सीमित हो जाती है। कुछ महत्‍वपूर्ण सीमांत कारक निम्‍न हैं –

सीमित भोज्‍य सामग्री – जनसंख्‍या भोज्‍य सामग्री के कारण सीमित हो जाती है अगर भोज्‍य सामग्री कम है तो वह जनसंख्‍या बढ़ नहीं सकती।

परभक्षी जंतु – परभक्षी जंतु जनसंख्‍या पर अंकुश लगाते हैं जैसे अफ्रिका की जंगलों से शेर को खत्‍म कर दिया जाये तो जैबरा की जनसंख्‍या कुछ समय तक इतनी बड़ जायेगी। जब तक की सीमित भोज्‍य सामग्री व रोग उसके लिए वाहक न बनाये।

रोग – रोग तीसरा सीमांत कारक है। जब भी जनसंख्‍या की अति हो जाती है तो कोई न कोई महामारी इस पर रोक लगा देती है।

स्‍थान – स्‍थान की कमी के कारण से भी जनसंख्‍या अनियमित वृद्धि रुक जाती है।

प्राकृतिक विपदाएं – जंतु के अचेत वातावरण में कोई भी बदलाव बाधक बन जाता है। जैसे – सूखा, बाढ़, तुफान, अत्‍याधिक गर्मी व ठण्डि आदि।

3. विभिन्‍नताएं -  य‍ह बात सर्वविधित है कि दो जीव कभी भी एक से नहीं हो सकते। एक ही माता-पिता की दो संताने भी कभी एक सी नहीं होती हैं। इसी को ही विभिन्‍नताएं कहते हैं। विभिन्‍नताएं जैव विकास की मूल आवश्‍यकताएं हैं। क्‍योंकि बिना भिन्‍नताओं के विकास नामुमकिन है विभिन्‍नता से ही जैव विकास उत्‍पन्‍न होता है।

4. योग्‍यता की उत्‍तर जीविता –  डार्विन के अनुसार जीवन के संघर्ष में वे जीव सफल होते हैं जो वातावरण के जीव सफल होते हैं। जो वातावरण के अनुरूप अनुकूलित हो जाते हैं या अधिक सफल जीवन व्‍यतीत करते हैं। इनकी जनन क्षमता भी अधिक होती है तथा यह स्‍वस्‍थ संतानों को उत्‍पन्‍न करते हैं। जिससे उत्‍पन्‍न लक्षण पीढि़ दर पीढ़ी में वंशागत वातावरण के प्रति अधिक अनुकूल होती है। डार्विन ने प्राकृतिक वरण द्वारा योग्‍यता की उत्‍तरजीविता को लैमार्क जिराफ द्वारा समझाया।

5. नई जाति की उत्‍पत्ति – वातावरण निरंतर परिवर्तित होता रहता है। जिससे जीवों में उनके अनुकूल रहने के लिए विभिन्‍नताएं आ जाती हैं। यह विभिन्‍नताएं पीढ़ी दर पीढ़ी जीवों में ए‍कत्रित होती रहती है धीरे-धीरेवह अपने पूर्वजों से इतने भिन्‍न हो जाते हैं कि वैज्ञानिक उन्‍हें नयी जाति का स्‍थान दे देते हैं। इसी के आधार पर डार्विन ने जाति के उद्भव का सिद्धांत प्रस्‍तुत किया।

डार्विनवाद की विशेषताएं –

1. जीवों में संतानोप्‍त्ति की प्रचुर क्षमता

2. जीवन संघर्ष

3. समर्थ का जीवत्‍व या प्राकृतिक वरण

4. विभिन्‍नताएं तथा अनुवंशिकता

5. वातावरण के प्रति अनुकूलता

6. नयी जातियों की उत्‍पत्ति

डार्विनवाद के प्रयोग –

शेर, चीता तथा तेंदुआ आपस में स्‍वभाव एवं रचना में एक-दूसरे से काफी मिलते-जुलते हैं। ये सभी मांसाहारी हैं और उनकी अंगूलियों पर नुकीले नाखून होते हैं। अत: इनका विकास एक ही प्रकार के पूर्वजों से हुआ होगा। किन्‍तु वातावरण का अधिकतम लाभ उठाने के लिए इनमें परिवर्तन आते गये और धीरे-धीरे ये परिवर्तन इनते अधिक हो गये कि तीनों से अलग-अलग जातियां बनीं।

डार्विनवाद की आलोचना/दोष/कमियां –

1. इसके अनुसार छोटी-छोटी विभिन्‍नताएं नये जीवों को उत्‍पन्‍न करती हैं। वैज्ञ‍ानिकों के अनुसार छोटी विभिन्‍नताओं के कारण नई जातियां पैदा नहीं हो सकती।

2. डार्विनवाद जीवन की उत्‍पत्ति के विषय में नहीं बताता है।

3. यह बाद विभिन्‍न प्रजातियों के विलुप्‍तीकरण और अतिविशि‍ष्‍टीकरण को स्‍पष्‍ट नहीं करता है।

4. इस सिद्धांत में अवशेषी अंगों के विषय में कोई प्रमाण नहीं हैं।

 

लैमार्कवाद और डार्विनवाद में अंतर


लैमार्कवाद

डार्विनवाद

1. लैमार्कवाद उपार्जित लक्षणों की वंशागति के आधार पर अपना सिद्धांत दिया है।डार्विन ने प्राकृतिक चयन पर आधारित जैव विकास की बात की है।
2.लैमार्क ने अपने सिद्धांत को जिराफ की लंबी गर्दन के उदाहरण से समझाया।डार्विन ने योग्यतम की उत्तरजीविता के आधार पर अपना सिद्धांत दिया।
3. लैमार्क का वाद प्राणियों पर आधारित है।डार्विन का वाद प्रकृति पर आधारित है।
4. लैमार्क ने अंगों के उपयोग और अन उपयोग की बात की हैडार्विन ने अपने सिद्धांत में जीवो की वंशागति की बात की।



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